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________________ - 31 ------- जिनालयाः पर्वततुल्यगाथाः समग्रभूसम्भवदेणनाथाः। श्रृङ्गाग्रसंलग्नपयोदखण्डाः श्रीरोदसीदशितमानदण्डाः ॥३१॥ उस नगर में जिनालय पर्वत के समान प्रतीत होते थे। जैसे पर्वत उन्नत एवं विशाल होते हैं, वैसे ही वहां के जिनालय भी अति उत्तुंग एवं विस्तृत थे। जैसे पर्वतों पर मृगराज विराजते हैं, वैसे ही उन जिनालयों के शिखरों पर चारों ओर सिंहों की मूर्तियां बनी हुई थी। और जैसे पर्वतों के श्रृङ्गों के अग्रभाग से मेघ-पटल संलग्न रहता है, उसी प्रकार इन जिनालयों के शिखरों के अति ऊँचे होने से उनसे भी मेघ-पटल स्पर्श करता रहता था । इस प्रकार वहां के जिनालय अपनी ऊँचाई के कारण पृथ्वी और आकाश को नापने वाले मानदण्ड से प्रतीत होते थे ॥३१॥ वणिक् पथः श्रीधरसन्निवेशः स विश्वतो लोचननामदेशः। यस्मिञ्जनः संस्क्रियतां न तूर्णं योऽभूदनेकाथतया प्रपूर्णः ॥३२॥ उस चम्पानगर का वणिक्पथ (बाज़ार) विश्वलोचन कोष सा प्रतीत होता था. जैसे यह कोष श्रीधर. आचार्य-रचित है, उसी प्रकार वहां का बाजार सर्व प्रकार की श्री सम्पत्ति से सन्निविष्ट अर्थात् सजा हुआ था। जैसे कोष का नाम विश्वलोचन है, वैसे ही वहां का बाजार संसार-भर के लोगों के नेत्रों द्वारा देखा जाता था अर्थात् संसार-भर के लोग क्रय-विक्रय करने के लिए वहां आते थे । जैसे विश्वलोचन कोष शब्दज्ञान से मनुष्य को शीघ्र संस्कृत अर्थात् व्युत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार वहां का बाजार भी खरीदने योग्य वस्तुओं से खरीददार को शीघ्र सम्पन्न कर देता था। जैसे यह कोष एक-एक शब्द के अनेक-अनेक अर्थों से परिपूर्ण है, वैसे ही वहां का बाजार एक-एक जाति के अनेक द्रव्यों से भरा हुआ था। तथा जैसे इस कोष में अनेक अध्याय, वर्ग आदि हैं, उसी प्रकार उस नगर के बाजारों के भी अनेक विभाग थे और वहां के राजमार्ग भी लम्बे चौड़े और अनेक थे ॥३२॥ पलाशिता किंशुक एव यत्र द्विरे फवर्गे मधुपत्वमत्र। विरोधिता पञ्जर एव भातु निरौष्ठचकाव्येष्वपवादिता तु ॥३३॥ उस नगर में 'पलाश' इस शब्द का व्यवहार केवल किंशुक (ढाक) के वृक्ष में ही था और कोई मनुष्य पल अर्थात् मांस का खानेवाला नहीं था । मधुप शब्द का व्यवहार केवल द्विरेफ वर्ग अर्थात् भ्रमर-समुदाय में ही होता था और कोई मनुष्य वहां मधु और मद्य का पान करने वाला नहीं था। विरोध-पना वहां पिंजरों में ही था, क्योंकि उनमें ही वि अर्थात् पक्षी अवरुद्ध रहते थे और वहां के किसी मनुष्य में परस्पर विरोधभाव नहीं था। अपवादिता वहां निरौष्ठय काव्यों में ही थी, अर्थात् जो विशिष्ट काव्य होते थे, उनमें ही ओष्ठ से बोले जाने वाले प, फ आदि शब्दों का अभाव पाया जाता था, अन्यत्र कहीं भी अपवाद अर्थात् लोगों की निन्दा बुराई आदि द्दष्टिगोचर नहीं होते थे ॥३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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