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उसी प्रकार सज्जनों की सन्तति का मनोमन्दिर भी सदा ही उल्लास- युक्त रहता है। जैसे शरद् ऋतु में उदार एवं मेघ समूह का विनाश करने वाली होती है, उसी प्रकार सत्पुरुषों की सन्तति भी उदार एवं लोगों के पापों का विनाश करने वाली होती है ॥८॥
कृपाङ्कुराः सन्तु सतां यथैव खलस्य लेशोऽपि मुदे सदैव । यच्छीलनादेव निरस्तदोषा पयस्विनी स्यात्सुकवेश्वच गौः सा ॥९॥ सुकविकी वाणी रुप गाय को जीवित रहने के लिए जिस प्रकार सत्पुरुषों की दयारुप दूर्वा (हरी घास) आवश्यक होती है, उसी प्रकार उसे प्रसन्न रखने के लिए दूर्वा के साथ खल (दुष्ट पुरुष और तिलकी खली) का समागम आवश्यक है, क्योंकि खल के अनुशीलन से जैसे गाय निर्दोष (स्वस्थ ) रहकर अधिक दुधारु हो जाती है, उसी प्रकार दुष्ट पुरुष के द्वारा दोष दिखाने से कवि की वाणी भी निर्दोष और आनन्द - वर्धक हो जाती है ॥९॥
गौविंधुवद्विधाना ।
कवेर्भवेदेव तमोधुनाना सुधाधुनी विरज्यतेऽतोऽपि किलैकलोकः स कोकवत्किन्त्वितरस्त्व शोकः ॥१०॥ जैसे चन्द्रमा की किरणें अन्धकार को मिटाने वाली और अमृत को बरसाने वाली होती हैं, उसी प्रकार सुकवि की वाणी भी अज्ञान को हटाकर मन को प्रसन्न करने वाली होती है। फिर भी चकवा पक्षी के समान कुछ लोग उससे अप्रसन्न ही रहते हैं और शेष सब लोग प्रसन्न रहते हैं, सो यह भलेबुरे लोगों का अपना-अपना स्वभाव है ॥१०॥
द्वीपस्य यस्य प्रथितं न्यगायं जम्बूपदं बुद्धिमदुत्सवाय |
द्वीपेषु सर्वेष्वधिपायमानः सोऽयं सुमेरुं मुकुटं दधानः ॥ ११॥
जिसका नाम ही बुद्धिमानों के लिए आनन्द का देने वाला है, जो सब द्वीपों का अधिपति बनकर सबके मध्य में स्थित है और जो सुमेरु रुप मुकुट को अपने शिर पर धारण किये हुए है, ऐसा यह प्रसिद्ध जम्बूद्वीप है ॥११॥
मुदिन्दिरामङ्गलदीपकल्पः समस्ति मस्तिष्कवतां सुजल्पः । अनादिसिद्धः सुतरामनल्प लसच्चतुर्वर्गनिसर्ग तल्पः ॥१२॥
यह जम्बूद्वीप अनादिकाल से स्वतः सिद्ध बना हुआ है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चतुर्वगरुप पुरुषार्थ का स्वाभाविक समुत्पत्ति स्थान है, विचारशील जनों के द्वारा जिसके सदा ही गुण गाये जाते हैं ऐसा यह जम्बूद्वीप पुण्य रुप लक्ष्मी का मङ्गल-दीप सद्दश प्रतीत होता है ॥ १२ ॥
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तदेक भागो भरताभिधानः समीक्षणाद्यस्य तु विद्विधानः । भालं भवेन्नीरधिचीरवत्या भुवोऽद उच्चैः स्तनशैलतत्याः ॥ १३॥
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