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________________ 26 इस जम्बूद्वीप में भरत नाम का एक भाग (क्षेत्र) है, जिसके देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह नीरधि (लवणसमुद्र) रुप वस्त्र को धारण करने वाली और पर्वत रुप उच्च स्तन वाली पृथ्वी देवी का सुन्दर भाल (ललाट) ही है ॥१३॥ स्फुरायमाणं तिलकोपमेयं कि लार्य खण्डोत्तमनामधेयम्। गङ्गापगासिन्धुनदान्तरत्र पवित्रमेकं प्रतिभाति तत्र ॥१४॥ उस भरत क्षेत्र में भी तिलक के समान शोभायमान होने वाला, आर्यावर्त इस उत्तम नाम को धारण करने वाला यह आर्य-खण्ड है, जो कि गंगा और सिन्धु नाम की महा नदियों के अन्तराल में अवस्थित है और आर्य जनों के निवास के कारण जो पवित्र प्रदेश माना गया है ॥१४॥ तदेकदेशः शुचिसन्निवेशः श्रीमान् सुधीमानवसंश्रये सः। अङ्गाभिधानः समयः समस्ति यस्यासकौ पुण्यमयी प्रशस्तिः ॥१५॥ उस आर्य खण्ड में अंग नाम का एक देश है, जिसका सन्निवेश (वसावट) सुन्दर है और जहां पर श्रीमान एवं बुद्धिमान् लोग निवास करते हैं उस अंग देश की पुण्यमयी प्रशस्ति इस प्रकार है ॥१५॥ सग्रन्थितां निष्फलमुच्छि खत्वं वैरस्य भावं दधदग्रतस्त्वम्। इक्षो सदीक्षोऽस्यसतः सतेति महीभृता पीलनमेवमेति ॥१६॥ हे इक्षुवृन्द ! तुम लोग भी तो दुर्जनों के सहाध्यायी ही हो! क्योंकि जिस प्रकार दुर्जन लोग मायाचार की गांठ को हृदय के भीतर धारण करते हैं, उसी प्रकार तुम लोग भी अपने भीतर गंडेरी की गांठों को धारण करते हो. दुर्जन लोग बिना प्रयोजन ही अपने शिर को ऊंचा किये रहते हैं और तुम लोग भी अपने ऊपर फूल जैसा निष्फल तुर्रा धारण किये हुये हो। दुर्जन लोग सबके साथ वैरभाव धारण करते हैं और तुम लोग भी अपने ऊपरी अग्रभाग में उत्तरोत्तर नीरस भाव को धारण करते हो। बस, ऐसा मानकर ही मानों भूमिधर किसान लोग उस देश में ईख को पेलते ही रहते हैं। भावार्थ - उस देश में ईख अधिकता से पेली जाती थी, जिससे कि लोगों को गुड़, खाण्ड, शक्कर की प्राप्ति सुलभ थी ॥१६॥ समुच्छलच्छाखतयाऽय वीनां कलध्वनीना भृशमध्वनीनान्। फलप्रदानाय समाह यन्तः श्रीपादपाः कल्पतरुज्जयन्तः ॥१७॥ उस देश में वृक्ष उछलती हुई अपनी लम्बी-लम्बी शाखा रुप भुजाओं के द्वारा इशारा करके, तथा अपने ऊपर बैठे हुए पक्षियों की मीठी बोली के बहाने से अपने फलों को प्रदान करने के लिए पथिक जनों को बार बार बुलाते हुए कल्पवृक्षों को भी जीतते रहते हैं। भावार्थ - उस देश में फलशाली वृक्षों की अधिकता थी ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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