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________________ - ... 24 --- वर्धक है। उसका व्याख्यान आचार्य-परम्परा से अविच्छिन्न चला आ रहा है और जो अनन्त गुणों के निधान श्रीवीर भगवान् का स्मरण करने वाले आप लोगों के लिए बहुत ही अनुकूल है, जिसका सुनना आप लोगों के जीवन को सफल बनाने वाला है। (यहां पर मैं उसी का वर्णन करुंगा, सो एकाग्र होकर सुनें।) ४॥ पुराणशास्त्रं बहु द्दष्ट वन्तः नव्यं च भव्यं भवतात्तदन्तः। इदं स्विदङ्के दुतमभ्युदेति यदादरी तच्छिशुको मुदेति ॥५॥ हे मानुभावो, आप लोगों ने पुराणों और शास्त्रों को बहुत बार देखा है, जिनकी कि रचना अपूर्व, मनोरंजक एवं प्रशंसनीय है। उन्हीं में प्रसंग-वश सुदर्शन सेठ का वृत्तान्त आया हुआ है। उन्हीं के आधार पर यह प्रबन्ध लिखने के लिए उनके रचयिता आचार्यों का अनुयायी यह बालक भी सादर उद्यत हो रहा है ॥५॥ अस्मिन्निदानीमजडेऽपि काले रुचिः शुचिः स्यात्खलु सत्तमाऽऽले। जडाशयादेवमदङ्क पङ्काज्जाते सुवृत्तेऽपि न जातु शङ्का ॥६॥ ज्ञान-विज्ञान से उन्नत इस वर्तमान काल में मुझ जैसे अज्ञ पुरुष के द्वारा वर्णन किये जाने वाले इस चरित के पठन-श्रवण में उत्तम पुरुषों की अच्छी रुचि होगी, या नहीं, ऐसी शङ्का तो मेरे मन में है ही नहीं, क्योंकि प्रचण्ड ग्रीष्म-काल में यदि किसी सरोवर में कोई कमल द्दष्टिगोचर हो, तो उस पर तो भ्रमर और भी अधिक स्नेह दिखलाया करता है ॥६॥ विचारसारे भुवनेऽपि साऽलङ्कारामुदारां कवितां मुदाऽलम्। निषेवमाणे मयि यस्तु पण्डः स केवलं स्यात् परिफुल्लगण्डः॥७॥ विचारशील मनुष्यों के विद्यमान होने से सार-युक्त इस लोक में अलंकार (आभूषण) युक्त नायिका के समान विविध प्रकार के अलंकारों से युक्त इस उदार कविता को भली भांति सहर्ष सेवन करने वाले मुझ पर केवल वही पुरुष अपने गाल फुलावेगा-चिढ़ कर निन्दा करेगा - जो कि षण्ढ (नपुंसक-पक्ष में कविता करने के पुरुषार्थ से हीन) होगा। अन्य लोग तो मेरे पुरुषार्थ की प्रशंसा ही करेंगे ॥७॥ अनेक धान्यार्थकृतप्रचारा समुल्लसन्मानसवत्युदारा। सतां ततिः स्याच्छरदुक्तरीतिः सा मेघसंघातविनाशिनीति ॥८॥ सत्पुरुषों की सन्तति-शरद् ऋतु के समान सुहावनी होती है। जैसे शरद्-ऋतु अनेक प्रकार के धान्यों को उत्पन्न करती है और मार्गों का कीचड़ सुखाकर गमना-गमन का संचार प्रारम्भ करने वाली होती है, उसी प्रकार सन्त जनों की सन्तति अनेक प्रकारों से अन्य लोगों का उपकार करने के लिए तत्पर रहती है। जैसे शरद्-ऋतु में मान सरोवर आदि जलाशयों का जल निर्मल लहरों से उल्लासमान रहता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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