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-- 12 -- और पंडिता धाय भी वन्दना को गई। उपसर्ग से पराभूत व्यन्तरी भी वन्दना को गई। सुदर्शन केवली का धर्मोपदेश सुनकर कितने ही लोग मुनि बन गये, कितनों ने श्रावक के व्रत धारण किये। कितनी ही स्त्रियां आर्यिका और कितनी ही श्राविकाएं बन गई। उस वेश्या और पंडिता ने भी यथा-योग्य व्रत ग्रहण किये और व्यन्तरी ने सम्यक्त्व को ग्रहण किया। पुनः सुदर्शन केवली विहार कर धर्मोपदेश देते हुए जीवन के अन्त में अघाति कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हुए।
सुदर्शन का यही कथानक कुछ पल्लवित करके परवर्ती ग्रन्थकारों ने लिखा है, जिनमें अपभ्रंश सुदर्शनचरित के कर्ता आ. नयनन्दि, संस्कृत सुदर्शन चरित के कर्ता आ. सकल कीर्ति और आराधना कथाकोश के कर्ता ब्रह्म. नेमिदत्त प्रमुख हैं। सबसे अन्त में प्रस्तुत सुदर्शनोदय की रचना हुई है। इन सबमें वर्णित चरित में जो खास अन्तर द्दष्टिगोचर होता है, वह इस प्रकार है:
१. हरिषेण ने अपने कथा कोश में सुदर्शन का न कामदेव के रुप में उल्लेख किया है और अन्त:कृत् केवली के रुप में ही। हां, केवलज्ञान उत्पन्न होने पर उनके आठ प्रातिहार्यों का वर्णन करते हुए लिखा है कि मुण्डकेवली के समवसरण की रचना नहीं होती है। यथाछत्रत्रयं समुतङ्गं प्राकारो
हरिविष्टरम्। मुण्डके वलिनो नास्ति सरणं समवादिकम् ॥१५७॥ छत्रमेकं शशिच्छायं
भद्रपीठं
मनोहरम्। मुण्डके वलिनो
द्वयमेतत्प्रजायते
॥१५८॥ इस उल्लेख से यह सिद्ध है कि सुदर्शन मुण्ड या सामान्य केवली हुए हैं और सामान्य केवलियों के समवसरण रचना नहीं होती। आठ प्रातिहार्य अवश्य होते हैं, पर तीन छत्र की जगह एक श्वेत छत्र और सिंहासन की जगह मनोहर भद्रपीठ होता है।
किन्तु नयनन्दि ने अपने सुदंसगण-चरिउ में तथा सकल कीर्ति ने अपने सुदर्शन चरित में उन्हें स्पष्ट रुप से चौबीसवां कामदेव और वर्धमान तीर्थंकर के समय में होने वाले दश अन्तःकृत्केवलियों में से पांचवां अन्त:-कृत्केवली माना है। यथा(१) अन्तयड सु केवलि सुप्पसिद्ध, ते दह दह संखए गुणसमिद्ध।
रिसहाइ जिणिंदहं तित्थे ताम, इह होति चरम तित्थयरु जाम। तित्थे जाउ कय कम्म हाणि, पंचमु तहिं अंतयडणाणि णामेण। सुदंसणु तहो चरित्तु, पारंभिउ अयाणुहुँ पवित्तु।।
(ऐ.स.भ.प्र.पत्र २ A.) (२) इय सुविणोयहि चरिमाणंगउ अच्छइ। नर वइ हे पसाय पुण्णुवंतु संघच्छइ ॥
(ऐ.स.भ.प्र. पत्र ३५ B)
ननं
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