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________________ 13 उक्त दो उल्लेखों में से प्रथम में पांचवे अन्तः कृत्केवली होने का तथा दूसरे में चरम अनङ्ग अर्थात् अन्तिम कामदेव होने का स्पष्ट निर्देश है। सकल कीर्ति ने भी दोनों ही रूपों में सुदर्शन को स्वीकार किया है। यथा वर्धमानदेवस्य यो श्री अन्तकृ त्के वली कामदेवश्च त्रिजगन्नाथवंद्यार्च्यः दिव्याङ्ग सुदर्शनमुनीश्वरः आ. हरिषेण ने कथानक के संक्षिप्त रूप से वर्णन करने के कारण भले ही उनका कामदेव के रूप में उल्लेख न किया हो। पर मुण्ड केवली के रूप में उनका उल्लेख अवश्य महत्त्व रखता है। नयनन्दि और सकल कीर्ति के द्वारा सुदर्शन को वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ का पांचवां अन्तकृत्क्क्रेवली मानना भी आगमसम्मत है, इसकी पुष्टि तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक और धवला टीका से होती है। यथा७ - वलीक८ 1- यम६ - लीक७ पंचमो वैश्यकुलखांशुमान्। बभूवाखिलार्थ दृक् “संसारस्यान्तः कृतो यैस्ते अन्तकृत : नमि१-मतङ्गर-सोमिल३ - रामपृत्र४ - सुदर्शन५किष्कम्बल ९ - पालाम्बष्टपुत्रा १० - इत्येते दश वर्धमान तीर्थङ्करतीर्मं । Jain Education International ।।१.१४।। रौद्र घोरोपसर्ग जित् । (तत्त्वार्थवितिंक अ. १ सूत्र २० । धवला पु. १ पृ. १०३ ) इस उल्लेख में सुदर्शन का नाम पांचवे अन्तः कृत्केवली के रूप में दिया गया है। जहां तक हमारी जानकारी है - अन्तः कृतकेवली उपसर्ग सहते सहते ही कर्मों का क्षपण करते हुए मुक्त हो जाते हैं, जैसे तीन पाण्डव उपसर्ग सहते हुए ही मुक्त हुए हैं। पर सुदर्शन को तो उपसर्ग होते हुए केवलज्ञान प्रकट होने की बात कह कर नयनन्दि और सकल कीर्ति भी हरिषेण के समान उनकी गन्धकुटी की रचना का तथा धर्मोपदेश देने और विहार करने का वर्णन करते हैं। सो यह बात विचारणीय है कि क्या अन्तः कृत्केवली के उक्त सब बातों का होना संभव है। और यदि सम्भव है, तो हरिषेण ने उन्हें अन्तः कृत्केवली न कह कर मुण्डकेवली क्यों कहा ? जब कि व्यन्तरी के द्वारा सात दिन तक घोर उपसर्ग सहने का वे भी उल्लेख करते हैं ? ।। १.१५ ।। सुदर्शनोदयकार ने सुदर्शन का अन्तिम कामदेव के रुप से तो उल्लेख किया है, पर अन्तः कृत्केवली के रूप से नहीं । किन्तु सुदर्शन को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात ही उन्होंने उनके निरंजन पद प्राप्त करने का वर्णन करके उनके अन्तः कृत्केवली होने की प्रकारान्तर से सूचना ही की है। यही कारण है कि उन्होंने उनकी गंधकुटी रची जाने, उपदेश देने और विहार आदि का कुछ भी वर्णन नहीं किया है। For Private & Personal Use Only (२) हरिषेण ने चम्पा के राजा का नाम 'दन्तिवाहन' दिया है, पर शेष आचार्यों ने धात्रीवाहन नाम दिया। (३) हरिषेण ने सुदर्शन के गर्भ में आने के सूचक स्वप्नादिकों का वर्णन नहीं किया है, पर शेष सबने उन्हीं पांच स्वप्नों का उल्लेख किया है, जिन्हें कि सुदर्शनोदयकार ने लिखा है। www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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