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________________ ....... 11 -- पर वे पाषाण मूर्ति के समान सर्वथा अचल रहे। इतने में सबेरा हो गया। भेद प्रकट होने के भय से रानी ने अपना त्रिया-चरित्र फैलाया और सुदर्शन को राज-सेवकों ने पकड़ लिया। राजा ने उक्त घटना सुनकर उन्हें प्राण-दण्ड की आज्ञा देकर चाण्डाल को सौंप दिया। चाण्डाल ने श्मसान में जाकर उन पर ज्यों ही तलवार का प्रहार किया कि वह फूल-माला बनकर उनके गले का हार बन गई। देवताओं ने आकाश से सुदर्शन के शीलव्रत की प्रशंसा करते हुए पुष्प-वर्षा की। जब राजा को यह ज्ञात हुआ तो वह सुदर्शन के पास आकर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगने लगा। सुदर्शन ने कहा - महाराज, इसमें आपका कोई दोष नहीं है. दोष तो मेरे पूर्वकृत कर्म का है। राजा ने सुदर्शन को बहुत मनाया, अपना राज्य तक देने की घोषणा की, मगर सुदर्शन ने तो पंडिता के द्वारा राज-भवन में लाते समय ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि मैं इस आपत्ति से बच गया, तो मुनि बन जाऊंगा। अतः सुदर्शन ने राज्य स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और घर जाकर अपना अभिप्राय मनोरमा से कहा। उसने कहा- 'जो तुम्हारी गति, सो मेरी गति'। सुनकर सुदर्शन प्रसन्न हुआ। दोनों जिनालय गये। भक्तिभाव से भगवान् का अभिषेक पूजन करके वहीं विराजमान आचार्य से दोनों ने जिन दीक्षा ले ली और सुदर्शन मुनि बनकर तथा मनोरमा आर्यिका बनकर विचरने लगे। ' इधर जब रानी को अपने रहस्य भेद होने की बात ज्ञात हुई तो आत्म-ग्लानि से फांसी लगा कर मर गई और व्यन्तरी देवी हुई। पंडिता धाय राजा के भय से भागकर पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या देवदत्ता की शरण में पहुँची। वहां जाकर उससे उसने अपनी सारी कहानी सुनाई और बोली- उस सुदर्शन जैसा सुन्दर पुरुष संसार में दूसरा नहीं है और संसार में कोई भी स्त्री उसे डिगाने में समर्थ नहीं है। देवदत्ता सुनकर बोली- एक बार यदि वह मेरे जाल में फंस पावे- तो देखूगी कि वह कैसे बच के निकलता है। उधर सुदर्शन मुनिराज ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक दिन गोचरी के लिए पाटलिपुत्र पधारे। उन्हें आता हुआ देखकर पंडिता धाय बोली-देख देवदत्ता, वह सुदर्शन आ रहा है, अब अपनी करामात दिखा। यह सुनकर देवदत्ता ने अपनी दासी भेजकर उन्हें भोजन के लिए पड़िगाह लिया। सुदर्शन मुनिराज को घर के भीतर ले जाकर उसने सब किवाड़ बन्द कर दिये और देवदत्ता ने अपने हाव-भाव दिखाना प्रारम्भ किया। मगर काठ के पुतले के समान उन पर उसका जब कोई असर नहीं हुआ, तब उसने उन्हें अपनी शय्या पर पटक लिया, उनके अंगों को गुद गुदाया और उनका संचालन किया। मगर सुदर्शन तो मुर्दे के समान अडोल पड़े रहे। वेश्या ने तीन दिन तक अपनी सभी संभव कलाओं का प्रयोग किया, पर उन पर एक का भी असर नहीं हुआ। अन्त में हताश होकर उसने सुदर्शन को रात के अंधेरे में ही श्मशान में डलवा दिया। सुदर्शन मुनिराज के श्मशान में ध्यानस्थ होते ही वह व्यन्तरी देवी आकाश मार्ग से विहार करती हुई उधर से आ निकली। सुदर्शन को देखते ही उसे अपना पूर्व भव याद आ गया और बदला लेने की भावना से उसने सात दिन तक महाघोर उपसर्ग किया। परन्तु वह उन्हें विचलित नहीं कर सकी। इधर चार घातियां कर्मों के क्षय होने से सुदर्शन मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो गया। देवों ने आकर आठ प्रातिहार्यों की रचना की। सारे नगर निवासी लोग उनकी पूजा वन्दना को आये। वह देवदत्ता वेश्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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