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________________ 138 - -- -- 28488 35800035828666 884 - मंगल कामना संसृतिरसको निस्सारा कदलीव किल दुरा धारा ॥स्थायी॥ स्वार्थत एव सेमस्तो लोकः परिणमिति च परमनुकूलौकः । सोऽन्यथा तु विमुख इहाऽऽरात्संसृतिरसकौ निस्सारा ॥१॥ जलबुद्बुदवजीवनमेतत्सन्थ्येव तनोरपि मृदुलेतः । तडिदिव तरला धनदारा संसृतिरसको निस्सारा ॥२॥ यत्र गीयते . गीतं प्रातः मध्याह्ने रोदनमेवातः । परिणमनधियो ह्यविकारात्संसृतिरसकौ निस्सारा ॥३॥ दृष्ट्वा सदैताद्दशीमेतां भूरागरुषो- किमुत सचेताः ।। परमात्मनि तत्वविचारात्संसृतिरसको निस्सारा ॥४॥ यह संसार केले के स्तम्भ के समान निःसार है, इसका कोई मूल आधार नहीं है । संसार के सब लोग अपने स्वार्थ से ही दूसरों के साथ अनुकूल परिणमन करते हैं और स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर वे विमुख हो जाते हैं, अतः यह संसार असार ही है। यह मनुष्य का जीवन जल के बबूले के समान क्षण-भंगुर है, शरीर की सुन्दरता भी सन्ध्याकालीन लालिमा के समान क्षण-स्थायी है और ये स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि के सम्बन्ध तो बिजली के समान क्षणिक हैं, अतएव यह संसार वास्तव में असार ही है। जहां पर प्रात:काल गीत गाते हुए देखते हैं, वहीं मध्याह्न में रोना पीटना दिखाई देता है। यह संसार ही परिवर्तनशील है, अतः निस्सार है. संसार के ऐसे विनश्वर स्वरूप को देखकर सचेत मनुष्य किसी में राग और किसी में द्वेष क्यों करें ? अर्थात् उन्हें किसी पर भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए। किन्तु तत्व का विचार करते हुए परमात्मा में उनके स्वरूप -चिन्तवन में लगना चाहिए, क्योंकि इस असार संसार में परमात्मा का भजन-चिन्तवन ही सार रूप है ॥१-४। समाप्तोऽयं ग्रन्थः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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