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- 137 ...... वीरोक्तशुभतत्त्वार्थलोचनेनाद्य
वत्सरे
। पुण्यादहं समाप्नोमि सुदर्शनमहोदयम् ॥१३॥
श्रीवीरभगवान् द्वारा प्रतिपादित शुभ सप्त तत्वार्थरूप नेत्र से आज इस वीर निर्वाण २४७० संवत्सर में मैं बड़े पुण्योदय से इस सुदर्शन के महोदय को प्रकट करने वाले सुदर्शनोदय को समाप्त कर रहा हूँ ॥१३॥
भावार्थ - 'अंकानां वामतो गतिः' इस नियम के अनुसार शुभपद से शून्य (०) तत्वपद से सात (७) अर्थपद (पुरुषार्थ) से चार (४) और लोचन पद से दो (२) का अंक ग्रहण करने पर वीर निर्वाण संवत् २४७० में इस ग्रन्थ की रचना हुई।
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्यहाह्वयं , वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तेनेदं रचितं सुदर्शनधनीशनादोयं राजतां, यावद्भानुविधूदयो भवभृतां भद्रं दिशच्छीमताम् ॥१४॥
राणोली (राजस्थान) में श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी हुए । उनकी धर्मपत्नी श्रीमती घृतवरी देवी थीं। उनसे श्रीमान वाणीभूषण, बालब्रह्मचारी पं. भूरामलजी हुए - जो वर्तमान में मुनि ज्ञानसागर के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके द्वारा रचित यह सुदर्शनोदय काव्य जब तक संसार में सूर्य और चन्द्र का उदय होता रहे तब तक आप सब श्रीमानों का कल्याण करता हुआ पठन-पाठन केधूप से विराजमान रहे । .
इस प्रकार सुदर्शन मुनिराज के मोक्ष-गमन का वर्णन करने वाला यह नवां सर्ग समाप्त हुआ।
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