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प्रशमधर
मदनमदहरण
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परमपदपथक थन
मम
च
परमघमथन
॥८८॥
हे प्रशमभाव के धारक, हे मुनिगण के शरण देने वाले, हे काम- मद के हरने वाले, हे परम पद के उपदेशक, और मेरे पापों के मथन करने वाले । हे सुदर्शन भगवन्, आप सदा जयवन्त रहें ॥८८॥
परमागमलम्बेन
नवेन
सन्नयं
लप।
यन्न सन्नर मङ्ग मां
नयेदिति
न
मे मतिः ॥८९॥
हे नरोत्तम सुदर्शन भगवन परमागम के अवलम्बन से नव्य भव्य उपदेश के द्वारा मुझे सन्मार्ग दिखाओ, आपका वह सदुपदेश ही मुझे सुख-सम्पादन न करेगा, ऐसी मेरी मति नहीं है, प्रत्युत मुझे अवश्य ही सुख प्राप्त करावेगा, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ ८९ ॥
तमेव
सततं
शरीरगतरङ्ग धरं
गणशरण
वन्दे
रङ्गं
विलसत्तमालचकार । एषकश्च, मे सः 118011
लब्ध्वा
चक्रे भुवः
स
जिनके शरीर का रंग तमालपत्र के समान श्याम है और अंग के रंग समान काला सर्प ही जिनका चरण - चिह्न है, जो जितेन्द्रिय पुरुषों में मुख्य माने गये हैं ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान् हमारे पापों के नाश करने वाले हों ॥९०॥
राजीमतिपतिः
भूतमात्रहित: महिमा
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हि
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जय
पातु
यस्य भो
मङ्क मक नाशक
वशिनां पणमाप
भव्या
ललामा
कृ पालतातः
आरब्धं
मञ्जुले भवतां कण्ठे ऽस्तु
मम कौतुकम् तमा श्रीकरं परम्
॥९२॥
हे भव्य जीवो, प्राणिमात्र के हित करने वाले वे राजुल - पति श्रीनेमिनाथ भगवान् तुम सब लोगों की रक्षा करें, जिनकी ललाम (सुन्दर) यशोमहिमा भी काम की बाधा से हमें दूर रखती है। उनकी कृपारूप लता से रचित यह मेरा पुष्परूप निबन्ध आप लोगों के सुन्दर कष्ठ में परम शोभा को बढ़ाता हुआ विराजमान रहे ॥९१-१२ ॥
विशेष
तस्येदं
स वः 1 मारदूरगः
इन दोनों श्लोकों के आठों चरणों के प्राम्भिक एक-एक अक्षर के मिलाने पर भूरामलकृतमस्तु वाक्य बनता है जिसका अर्थ यह है कि यह 'सुदर्शनोदय भूरामल रचित' है ।
॥९१॥
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