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..... 135 1... मात्र से ही अच्छे धीर वीरों का भी हृदय कम्पन करने लगता है ॥८२॥ आत्मन्येवाऽऽत्मनाऽऽत्मानं चिन्तयतोऽस्य धीमतः ।।
जातुचिदभूल्लक्ष्यस्तत्कृतोपद्रवे पुनः ॥८३॥ किन्तु अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा का ही चिन्तवन करने वाले इन महाबुद्धिमान सुदर्शन मुनिराज का उपयोग उस यक्षिणी के द्वारा किये जाने वाले उपद्रव की ओर रंच मात्र भी नहीं गया ॥८३। त्यक्त्वा देहगतस्नेहमात्मन्येकान्ततो
रतः। वभूवास्य ततो नाशमगू रागादयः क मात् ॥८४॥ उस देवी-कृत उपसर्ग के समय वे सुदर्शन मुनिराज देह सम्बन्धी स्नेह को छोड़कर एकाग्र हो अपनी आत्मा में निरत हो गये, जिससे कि अवशिष्ट रहे हुए सूक्ष्म रागादिक भाव भी क्रम से नाश को प्राप्त हो गये ॥८४॥
भावार्थ - सुदर्शन मुनिराज ने उस उपसर्ग-दशा में ही क्षपक श्रेणी पर चढ़कर मोह आदिक घातिया कर्मों का नाश कर दिया।
निःशेषतो मले नष्टे नैर्मल्यमधिगच्छति।
आदर्श इव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत् ॥८५॥ इस प्रकार भाव-मल के नि:शेषरूप से नष्ट हो जाने पर वे परम निर्मलता को प्राप्त हुए, अर्थात् केवलज्ञान को प्राप्त कर अरहन्त परमेष्ठी बन गये। उस समय उनकी आत्मा में दर्पण के समान समस्त जगत् प्रतिबिम्बित होने लगा ॥८५॥
नदीपो गुणरत्नानां जगतामेकदीपकः । स्तुताज्जनतयाऽधीतः स निरज्जनतामधात् ॥८६॥
पुनः गुणरुप रत्नों के सागर, तीनों जगत् के एक मात्र दीपक, और सर्व लोगों के द्वारा आराधना करने योग्य वे सुदर्शन जिनेन्द्र निरंजन दशा को प्राप्त हुए, अर्थात पुनः शेष चारों अघातिया कर्मों का भी क्षयकर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया ॥८६॥
मानवः प्रपठे देनं सुदर्शनसमुद्गमम् । येनाऽऽत्मनि स्वयं यायात्सुदर्शनसमुद्गमम् ॥७॥
जो मानव सुदर्शन के सिद्धि-सौभाग्यरूप उदय को प्रकट करने वाले इस सुदर्शनोदय को पढ़ेगा, वह अपनी आत्मा में सम्यग्दर्शन के उदय को स्वयं ही प्राप्त होगा ॥८७॥
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