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________________ | 134 ---------- - - - - - रानी अभयमती मर कर व्यन्तरी देवी हुई थी। वह दैव-संयोग से अपनी इच्छानुसार विहार करती हुई इसी स्मशान के ऊपर से जा रही थी । अकस्मात् विमान के गति-रोध हो जाने से उसने नीचे की ओर देखा और ध्यानारूढ़ सुदर्शन को देखकर अत्यन्त कुपित हो उस दुराचारिणी ने उनके ऊपर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया ।७६-७७।। रे दुष्टाऽभयमत्याख्यां विद्धि मां नृपयोषितम् । यस्याः साधारणी वाञ्छा पूरिता न त्वया स्मयात् ॥७८॥ वह व्यन्तरी रोष से बोली-रे दुष्ट, जिसकी साधारण सी इच्छा तूने अभिमान से पूर्ण नहीं की थी, मैं वही अभयमती नाम की राजरानी हूँ, इस बात को अच्छी तरह समझ ले ७८।। पश्य मां देवताभूय रूपान्तूपासकाधिप त्वमिमां शोचनीयास्थामाप्तो नैष्ठुर्ययोगतः ॥७९॥ हे श्रावक-शिरोमणि, मुझे देख, मैं देवता बनकर आनन्द कर रही हूँ और तू निष्ठर व्यवहार के कारण इस शोचनीय अवस्था को प्राप्त हुआ है ॥७९॥ कस्यापि प्रार्थनां कश्चिदित्येवमवहे लयेत्। मनुष्यतामवाप्तश्चेद्यथा त्वं जगतीतले ॥८॥ इस भूतल पर कोई भी जीव किसी भी जीव की प्रार्थना का इस प्रकार तिरस्कार नहीं करता, - जैसा कि तूने मनुष्यपना पाकर मेरी प्रार्थना का तिरस्कार किया है ॥८॥ हे तान्त्रिक तदा तु त्वं कृतावान् भूपमात्मसात् । वदाद्य का दशा ते स्यान्मदीयकरयोगतः ॥८॥ हे तांत्रिक, उस समय तो तूने अपरनी तंत्र-विद्या से राजा को अपने अनुकूल बना लिया ( सो बच गया)। अब बोल, आज मेरे हाथ से तेरी क्या दशा होती है ॥८१।। इत्यादिनिष्ठ रवचाः कृतवत्यनेकरूपं प्रविघ्नमिति तस्य च वर्णने कः । दक्षः समस्तु परिचिन्तनमात्रतस्तुयजायते हृदयकम्पनकारि वस्तु ॥८२॥ इत्यादि प्रकार से निष्ठर वचनों को कहने वाली उस यक्षिणी ने जो अनेक घोर विघ्न, उपद्रव सुदर्शन मुनिराज के ऊपर किये, उन्हें वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है। उनके तो चिन्तवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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