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________________ 133 देहं वदेत्स्वं बहिरात्मनामाऽन्तरात्मतामेति विवेकधामा । विभिद्य देहात्परमात्मतत्वं प्राप्नोति सद्योऽस्तकलङ्क सत्वम् ॥७२॥ आत्मा तीन प्रकार की होती हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमें से बहिरात्मा तो देह को ही अपनी आत्मा कहता है । विवेकवान् पुरुष शरीर से भिन्न चैतन्यधाम को अपनी आत्मा मानता है । जो अन्तरात्मा बनकर देह से भिन्न निष्कलंक सत्, चिद् और आनन्दरूप परमात्मा का ध्यान करता है, वह स्वयं शुद्ध बनकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है, अर्थात् परमात्मा बन जाता है ॥७२॥ आत्माऽनात्मपरिज्ञानसहितस्य समुत्सवः I धर्मरत्नस्य सम्भूयादुपलम्भ: समुत् स वः ॥७३॥ इस प्रकार आत्मा और अनात्मा (पुद्गल) के यथार्थ परिज्ञान से सहित धर्मरूप रत्न का प्रकाश लाभ आप लोगों को प्रमोद - वर्धक होवे, यह मेरा शुभाशीर्वाद है ॥७३॥ गतः आर्यात्वं स्म दासीसमेतान्वितः इत्येवं वचनेन मार्दववता मोहोऽस्तभावं यद्वद् गारुडिनः सुमन्त्रवशतः सर्पस्य दर्पो हतः समेति पण्यललना स्वर्णत्वं रसयोगतोऽत्र लभते लोहस्य लेखा यतः ॥७४॥ इस प्रकार सुदर्शन मुनिराज के सुकोमल वचनों से उस देवदत्ता वेश्या का मोह नष्ट हो गया, जैसे कि गारुडी (सर्प-विद्या जानने वाले) के सुमंत्र के वश से सर्प का दर्प नष्ट हो जाता है। पुनः दासी - समेत उस वाराङ्गना देवदत्ता ने उन्हीं सुदर्शन मुनिराज से आर्यिका के व्रत धारण किये। सो ठीक ही है, क्योंकि इस जगत् में लोहे की शलाका भी रसायन के योग से सुवर्ण पने को प्राप्त हो जाती है ॥७४॥ प्रेतावासे पुनर्गत्वा सुदर्शनमहामुनिः I कायोत्सर्गं दधाराऽसावात्मध्यानपरायणः ॥७५॥ तत्पष्चात उन सुदर्शन महामुनि ने स्मशान में जाकर कायोत्सर्ग को धारण किया और आत्म- ध्यान में निमग्न हो गये ॥ ७५ ॥ ध्यानारूढममुं उपसर्गमुपारब्धवती आगता दृष्टवा व्यन्तरी कुर्त महासती Jain Education International दैवसंयोगाद्विहरन्ती गतिरोधवशेनासावे तस्योपरि महिषीचरी 1 For Private & Personal Use Only रोषणा ॥७६॥ निजेच्छया । ॥७७॥ www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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