SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -------------- 132 --. संयमी मनुष्य का आत्म- गुण प्राप्ति की ओर उपयुक्त एवं उद्यत होना ही जितेन्द्रियता की आठवीं सीढ़ी है ॥६६॥ मदीयत्वं न चाङ्गेऽपि किं पुनर्बाह्य वस्तुषु। इत्येवमनुसन्धानो धनादिषु विरज्यताम् ॥६७॥ जब मेरे इस शरीर में भी मेरी आत्मा का कुछ तत्त्व नहीं है, तब फिर बाहिरी धनादि पदार्थो में तो मेरा हो ही क्या सकता है? इस प्रकार से विचार करने वाले जितेन्द्रिय पुरुष को पूर्वोपार्जित धनादिक में भी विरक्ति भाव धारण करना चाहिए अर्थात् उनका त्याग करे। यह श्रावक की नवीं सीढ़ी है ॥६७॥ मनोऽपि यस्य नो जातु संसारोचितवम॑नि। समयं सोऽभिसन्दध्यात्परमं परमात्मनि ॥६८॥ जिस जितेन्द्रिय मनुष्य का मन संसार के मार्ग में कदाचित भी नहीं लग रहा है, वह दूसरों को भी संसारिक कार्यों के करने में अपनी अनुमति नहीं देता है और अपना सारा समय वह परमात्मा में लगाकर परम तत्त्व का चिन्तन करता है। यह जितेन्द्रियता की दशवीं सीढ़ी है ॥६८।। अनुद्दिष्टां चरेद् भुक्तिं यावन्मुक्तिं न सम्भजेत् । स्वाचारसिद्धये यस्य न चित्तं लोक वर्त्मनि ॥६९॥ उपर्युक्त प्रकार से दश सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ जितेन्द्रिय पुरुष जब यावजीवन के लिए अनुद्दिष्ट भोजन को ग्रहण करता है। अर्थात् अपने लिए बनाये गये भोजन को लेने का त्यागी बन जाता है और अपने आचारकी सिद्धि के लिए अपने चित्त को लोक-मार्ग में नहीं लगाता है, तब वह उद्दिष्ट त्यागरूप ग्यारहवीं सीढ़ी पर अवस्थित जानना चाहिए ॥६९॥ अहिंसनं मूलमहो वृषस्य साम्यं पुनः स्कन्धमवैमि तस्य । सदुक्ति मस्तेयममैथुनञ्चापरिग्रह त्वं विटपप्रपञ्चाः ॥७०।। सदा षडावश्यककौतुकस्य शीलानि पत्रत्वमुशन्ति यस्य । धर्माख्यकल्पद्रु वरोऽभ्युदारः श्रीमान् स जीयात्समितिप्रसारः ॥७९॥ हे भद्रे, धर्मरूप वृक्ष की अहिंसा जड़ है, साम्य भाव उसका स्कन्ध (पेड़ी या तना) है । तथा सत्य-संभाषण, स्तेय-वर्जन, मैथुन-परिहार और अपरिग्रहपना ये उस धर्मरूपी वृक्ष की चार शाखाएँ हैं, छह आवश्यक जिसके फल हैं, शीलव्रत जिसके पत्र हैं और ईर्या, भाषा समितियां जिसकी छायारूप है । ऐसा यह श्रीमान् परम उदार धर्मरूप कल्पवृक्ष सदा जयवन्त रहे ७०-७१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy