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अष्टमी और चतुर्दशी पर्व के दिन अपनी इन्द्रियों को जीतते हुए सदा ही उपवास करना चाहिए और उस दिन परम प्रशम भाव को धारण कर अपने मन की प्रवृत्ति को किसी भी अयोग्य देश में कभी नहीं जाने देना चाहिए।। ६२॥ भावार्थ - प्रत्येक पर्व के दिन यथाविधि उपवास करे। यह श्रावक की चौथी सीढ़ी है।
या खलु लोके फलदलजातिर्जीवननिर्वहणाय विभाति। यावन्नाग्निपक्वतां यातितावन्नहि संयमि अश्नाति ॥६॥
जीवन-निर्वाह के लिए लोक में जो भी फल और पत्र जाति की वनस्पति आवश्यक प्रतीत होती है, वह जब तक अग्नि से नहीं पकाई जाती है, तब तक संयमी मनुष्य उसे नहीं खाता है॥६३६॥
भावार्थ - सचित्त वस्तु को अग्नि पर पकाकर अचित्त करके खाना और सचित्त वस्तु के सेवन का त्याग करना, यह जितेन्द्रियता की पांचवीं सीढ़ी है।
एकाशनत्वमभ्यस्येद् द्वयशनोऽह्नि सदा भवन् । मानवत्वमुपादाय न निशाचरतां व्रजेत ॥६४॥
छठी सीढ़ी वाला जितेन्द्रिय पुरुष दिन में दो बार से अधिक खान-पान न करे और एक बार खाने का अभ्यास करे। तथा मानवता को धारण कर निशाचरता को न प्राप्त हो, अर्थात् रात्रि-भोजन का त्याग करे, रात्रि में खाकर निशाचर (राक्षस और नक्तचर) न बने ॥४॥
समस्तमप्युज्झतु सम्व्यवायं वाञ्छे न्मनागात्मनि चेदवायम् । अक्षेषु सर्वेष्वपि दर्पकारीदमेव येनापि मनो विकारि ॥६५॥
यदि विवेकशील मनुष्य आत्मा में मन को कुछ काल के लिए भी लगाना चाहता है, तो वह सर्व प्रकार के काम-सेवन का त्याग कर देवेोक्योंकि इस काम-सेवन से विकार को प्राप्त हुआ मन सर्व ही इन्द्रियों के विषयों में स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने वाला हो जाता है। यह जितेन्द्रियता की सातवीं सीढ़ी है ॥६५॥
चेदिन्द्रियाणां च हृदो न द्दप्तिः कुतो बहिर्वस्तुषु संप्रक्लृप्तिः। यतो भवेदात्मगुणात्परत्र प्रयोगिता संयमिनेयमत्र ॥६६॥
यदि हृदय में इन्द्रियों के विषय सेवन का दर्प न रहा, अर्थात् ब्रह्मचर्य को धारण कर लेने से इन्द्रिय-विषयों पर नियंत्रण पा लिया, तो फिर बाहिरी धन, धान्यादि वस्तुओं में संकल्प या मूर्छा रहना कैसे संभव है? और जब बाहिरी वस्तुओं के संचय में मूर्छा न रहेगी, तब वह उन्हें और भी संचय करने के लिए खेती-व्यापार आदि के आरम्भ-समारम्भ क्यों करेगा । इस प्रकार ब्रह्मचारी मनुष्य आगे बढ़ कर आरम्भ-उद्योग का त्याग कर अपने आत्मिक गुणों की प्राप्ति के उद्योग में तत्पर होता है।
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