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________________ _______ -------------- - 125 125 - - __ - -- _ - - - -- - -- - - सानुकू लमिति श्रुत्वा वचनं पण्ययोषितः.. इति सोऽपि पुनः प्राह परिणामसुखावहम् ॥३२॥ उस देवदत्ता वेश्या के इस प्रकार अनुकूल वचन सुनकर सुदर्शन मुनिराज ने परिणाम (आगामी काल) में सुख देने वाले वचन कहे ॥३२॥ फलं _ सम्पद्यते जन्तोर्निजोपार्जितकर्मणः। दातुंसुखं च दुःखं च कस्मै शक्नोति कः पुमान् ॥३३॥ मुनिराज ने कहा - हे देवदत्ते, अपने पूर्वोपार्जित कर्म का फल जीव को प्राप्त होता है । अन्यथा किसी को सुख या दुःख देने के लिए कौन पुरुष समर्थ हो सकता है ? ॥३३॥ जन आत्ममुखं दृष्टवा स्पष्ट मस्पष्टमेव वा। तुष्यति द्वेष्टि चाभ्यन्तो निमित्तं प्राप्य दर्पणम् ॥३४॥ देखो - मनुष्य दर्पण में अपने स्वच्छ मुख को देखकर प्रसन्न होता है और मलिन मुख को देखकर दुखी होता है, तो इसमें दर्पण का क्या दोष है? इसी प्रकार दर्पण के समान बाह्य निमित्त कारण को पाकर पुण्यकर्म के उदय से सुख प्राप्त होने पर यह संसारी जीव सुखी होता है और पाप कर्म के उदय से दुःख प्राप्त होने पर दुखी होताहै, तो इसमें निमित्त कारण का क्या दोष है? यह तो अपने पुण्य और पाप कर्म का ही फल है ॥३४॥ कर्तव्यमिति शिष्टस्य निमित्तं नानुतिष्ठ तात् । न चान्यस्मै भवेज्जातु दुनिमित्तं स्वचेष्ट या ॥३५॥ __ इसलिए शिष्ट पुरुष का कर्तव्य है कि वह निमित्त कारण को बुरा भला न कहे। हां, अपनी बुरी चेष्टा से वह दूसरे के लिए कदाचित भी स्वयं दुर्निमित्त न बने ॥३५॥ आत्मनेऽपरोचमानमन्यस्मै नाऽऽचरेत् पुमान् । सम्पतति शिरस्येव सूर्यायोच्चालितं रजः ॥३६॥ अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपने लिए जो कार्य अरुचिकर हो, उसे वह दूसरे के लिए भी आचरण न करे । देखो - सूर्य के लिए उछाली गई धूलि अपने ही शिर पर आकर पड़ती है, उस तक तो वह पहुँचती भी नहीं है ॥३६॥ मनो वचः शरीरं स्वं सर्वस्मै सरलं भजेत् । निरीह त्वमनुध्यायेद्यथाशक्त्यर्तिहानये ॥३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only __www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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