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कवालीयो रागः जिताक्षाणामहो धैर्य महो दृष्ट वा भवेदारात् ॥स्थायी। जगन्मित्रेऽब्जवत्तेषां मनो विकसति नियतिरेषा । भवति दोषाकरे येषां मुद्रणेवाप्तविस्तारा जिताक्षाणा०॥१॥ सम्पदि तु मृदुलतां गत्वा पत्रतामेत्यहो तत्वात् । विपदि वज्रायते सत्वाद वृत्तिरेषाऽस्ति समुदारा |जिताक्षाणा० २॥ जगत्यमृतायमानेभ्यः सदङ्करमीक्षमाणेभ्यः । स्वयंभूराजते तेभ्यः सुरभिवत्सत्कियांधारा ॥जिताक्षाणा० ॥३॥
अहो, जितेन्द्रिय पुरुषों के धैर्य को देखकर मुझे इस समय बहुत आनन्द हो रहा है, जिसका कि मन जगत्-हितकारी मित्र रुप सूर्य के देखने पर तो कमल के समान विकसित हो जाता है और दोषाकरचन्द्र के समान दोषों के भण्डार पुरुष को देखकर जिनका मन मुद्रित हो जाता है, ऐसी जिनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, ये जितेन्द्रिय पुरुष धन्य हैं। ऐसे महापुरुष सम्पत्ति प्राप्त होने पर तो कोमल पत्रों को धारण करने वाली मृदु लता के समान तत्त्वतः दूसरों के साथ नम्रता और परोपकार करने रुप पात्रता को धारण करते हैं और विपत्ती आने पर धैर्य धारण कर वज्र के समान कठोरता को प्राप्त हो जाते हैं, ऐसी जिनकी अति उदार सात्विक प्रवृत्ति होती हैं, वे जितेन्द्रिय पुरुष धन्य हैं। जो जगत में दुःख सन्तप्त जनों के लिए अमृत के समान आचरण करने वाले हैं और सदाचार पर सदा दृष्टि रखने वाले हैं, ऐसे उन महापुरुषों का आदर सत्कार करने के लिए यह समस्त भूमंडल भी वसन्त ऋतु समान सदा स्वयं उद्यत रहता है ॥१३॥
इत्येवं पदयोर्दयोदयवतो नूनं पतित्वाऽथ सा, सम्पाहाऽऽदरिणी गुणेषु शमिनस्त्वात्मीयनिन्दादशा । स्वामिंस्त्वय्यपराद्धमेवमिह यन्मौढयान्मया साम्प्रतं ,
क्षन्तव्यं तदहो पुनीत भवता देयं च सूक्तामृतम् ॥३१॥ इस प्रकार स्तुति कर और उन परम दयालु एवं प्रशान्त मूर्ति सुदर्शन मुनिराज के चरणों में गिरकर उनके गुणों में आदर प्रकट करती हुई, तथा अपने दोषों की निन्दा करती हुई वह देवदत्ता बोली --- हे स्वामिन मैंने मोह के वश होकर अज्ञान से जो इस समय आपका अपराध किया है, उसे आप क्षमा कीजिए और हे पतित पावन, उपदेश रुप वचनामृत देकर आप मेरा उद्धार कीजिए ॥३१॥
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