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________________ 123 सङ्गच्छन् यत्र महापुरुषः को नाऽनङ्गदशां याति ॥ इह पश्याङ्ग२ ॥ भूरानन्दस्येयमतोऽन्या काऽस्ति जगति खलु शिवतातिः ॥३॥ प्रिय, यदि तुम सिद्धशिला पर पहुँचने के इच्छुक हो, तो यहां देखो मेरे शरीर में यह सिद्ध शिला शोभायमान हो रही है। जैसे सिद्धशिला लोक के अग्र भाग में सबसे ऊपर अवस्थित मानी गई है और जहां पर मुक्त जीव निवास करते हैं, उसी प्रकार मेरे इस शरीर में ये अति उच्च स्तन मण्डल मृदु मुक्ताफलों (मोतियो ) वाले हार से सुशोभित हो रहे हैं। जैसे उस सिद्धशिला पर पहुँचने वाला महापुरुष अनङ्ग ( शरीर - रहित ) दशा को प्राप्त होता है, वैसे ही मेरे स्तन मण्डल पर पहुँचने वाला भाग्यशाली पुरुष भी अनङ्ग दशा ( काम भाव) को प्राप्त हो जाता है। अतः इस जगत् में यह देवदत्ता रूप सिद्धशिला ही अद्वितीय आनन्द का स्थान है। इसके सिवाय दूसरी और कोई कल्याण- परम्परा वाली सिद्धशिला नहीं है ॥२-३ ॥ इत्यादिसङ्गीतिपरायणा च सा नानाकुचेष्टा दधती नरङ्कषा । कामित्वमापादयितुं रसादित ऐच्छत्समालिङ्गन चुम्बनादितः ॥ २८ ॥ इस प्रकार श्रृङ्गार रस से भरे हुए सुन्दर संगीत -गान में परायण उस देवदत्ता वेश्या ने मनुष्य को अपने वश में करने वाली नाना कुचेष्टाएं की और आलिंगन, चुम्बनादिक सरस क्रियाओं से सुदर्शन मुनिराज में काम-भाव जागृत करने के लिए प्रयत्न करने लगी ॥ २८ ॥ दारूदितप्रतिकृतीङ्गशरीरदेशः पाषाणतुल्यहृदयः समभूत्स एषः । यस्मिन्निपत्य विफलत्वमगान्नरे सा तस्या अपाङ्गशरसंहतिरप्यशेषा ॥२९॥ किन्तु देवदत्ता के प्रबल कामोत्पादक प्रयत्नों के करने पर भी वे सुदर्शन मुनिराज काष्ठ निर्मित - पुतले के समान स्तब्धता धारण कर पाषाण-तुल्य कठोर हृदयवाले बन गये, जिससे कि उस देवदत्ता के समस्त कटाक्ष-वाणों का समूह भी उनके शरीर पर गिरकर विफलता को प्राप्त हो रहा था। मानव भावार्थ सुदर्शन मुनिराज ने अपने शरीर और मन का ऐसा नियमन किया कि उस वेश्या की सभी चेष्टाएं निष्फल रहीं और वे काठ के पुतले के समान निर्विकार ध्यानस्थ रहे ||२९|| यावद्दिनत्रयमकारि च मर्त्यरत्नमुच्चालितुं समरसात्तकया प्रयत्नः । किन्त्वेष न व्यचलदित्यनुविस्मयं सा गीतिं जगाविति पुनः कलितप्रशंसा ॥३०॥ इस प्रकार तीन दिन तक उस देवदत्ता वेश्या ने पुरुष - शिरोमणि उन सुदर्शन मुनिराज को साम्यभाव से विचलित करने के लिए बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वे विचलित नहीं हुए। तब वह अति आश्चर्य को प्राप्त होकर उनकी प्रशंसा करती हुई इस प्रकार उनके गुण गाने लगी ||३०|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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