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इन्द्रियों के विषयों में नित्य ही कष्ट है, (उनके सेवन में रंच मात्र भी सुख नहीं है) क्योंकि सुख तो आत्मा का गुण माना गया है। (वह बाह्य विषयों में कहाँ प्राप्त हो सकता है।) देखो-सूखी हड्डी को चबाने वाला कुत्ता अपने मुख में निकले हुए रक्त का स्वाद लेकर उसे हड्डी से निकला हुआ मानता है। यही दशा उन संसारी जीवों की है जो सुख को विषयों से उत्पन्न हुआ मानकर रात-दिन उनके सेवन में अनुरक्त रहते हैं ॥२६॥
इत्येवं प्रत्युत विरागिणं समनुभवन्तं स्वात्मनः किणम् । न्यपातयत्तमिदानीं तल्पे पुनरपि भावयितुं स्मरकल्पे ॥२७॥
इस प्रकार अनुराग के स्थान पर विराग का उपदेश देने वाले और अपने आत्मा के गुण का चिन्तवन करने वाले उन सुदर्शन मुनिराज को फिर भी कामवासना युक्त बनाने के लिए उस वेश्या ने अपनी काम तुल्य शय्या पर हठात् पटक लिया (और इस प्रकार कहने लगी) ॥२७॥
देवदत्तां सुवाणीं सुवित् सेवय ॥स्थायी। चतुराख्यानेष्वभ्यनुयोकत्री भास्वदङ्गतामिह भावय देवदत्तां. १॥ अनेकान्तरङ्गस्थल भोक्त्रीं किञ्चित्तमुखामाश्रय देवदत्तां.२॥ बलिरत्नत्रयमृदुलोदरिणी नाभिभवार्था सुगुणाश्रय देवदत्तां. ३॥ भूरानन्दस्येयमितीदं मत्वा मनः सदैनां नय ॥देवदत्तां. ॥४॥
हे सुविज्ञ, इस मधुर-भाषिणी देवदत्ता को जिनवामी के समान सेवन करो। जिनवाणी जैसे चार प्रकार के अनुयोगों में विभक्त है और सुन्दर द्वादश अंगो को धारण करती है, उसी प्रकार यह देवदत्ता भी लोगों को चतुर आख्यानकों में निपुण बना देने वाली और सुन्दर अंगों को धारण करने वाली है । जिनवाणी जैसे अनेकान्त सिद्धान्त की किञ्चिद् कथञ्त् िपद की प्रमुखता का आश्रय लेकर प्रतिपादन करती है, उसी प्रकार यह देवदत्ता भी अनेक द्वार वाले रङ्गस्थल का उपभोग करती है और कुछ गोल मुख को धारण करती है। जिनवाणी जैसे प्रबल एवं मृदुल रत्नत्रय को धारण करती है, उसी प्रकार यह देवदत्ता भी अपने उदर भाग में मृदुल तीन बलियों को धारण करती है और हे सुगुणों के आश्रयभूत सुदर्शन, जिनवाणी जैसे कभी भी अभिभव (पराभव) को नहीं प्राप्त होने वाले अकाटय अर्थ का प्रति पादन करती है, उसी प्रकार यह देवदत्ता भी अपनी नाभि में अगाध गाम्भीर्य रुप अर्थ को धारण करती है। इस प्रकार जैसे जिनवाणी तुम्हें आनन्द की देने वाली है, उसी के समान इस दैवदत्ता को भी आनन्द की देने वाली मानकर अपने मन को सदा इसमें लाओ और जिनवाणी के समान इसका (मेरा) सेवन करो ॥१-४॥
इह पश्याङ्ग सिद्धशिला भाति ॥स्थायी॥ उच्चैस्तनपरिणामवतीयं मृदुमुक्तात्मकताख्याति ॥इह पश्याङ्ग १॥
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