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________________ 121 हे भद्रे, इस शरीर में तू क्या सौन्दर्य देखती है? यह तो महा घृणा का स्थान है। ऊपर से यह चर्म से आवृत्त होने के कारण सुन्दर दिख रहा है, पर वस्तुतः इसके भीतर तो केवल विष्टा ही भरी हुई है ॥२१॥ मुदेऽहम् । विनाशि देहं मलमूत्रगेहं वदामि नात्मानमतो स्वकर्म सत्तावशवर्तिनन्तु सन्तश्चिदानन्दममुं श्रयन्तु ॥ २२ ॥ हे भोली, यह शरीर क्षण - विनश्वर है, मल-मूत्र का घर है, अतएव मैं कहता हूं कि यह कभी भी आत्मा के आनन्द का कारण नहीं हो सकता। और यही कारण है कि सन्तजन इसे चिदानन्दमयी आत्मा के लिए कारागार ( जेलखाना) के समान मानते हैं, जिसमें कि अपने कर्म की सत्ता के वशवर्ती होकर यह जीव बन्धन-बद्ध हुआ दुःख पाता रहता है ॥२२॥ एकोऽस्ति चारुस्तु परस्य सा रुग्दारिद्रयमन्यत्र धनं यथारुक् । इत्येवमालोक्य भवेदभिज्ञः कर्मानुगत्वाय द्दढप्रतिज्ञः ॥२३॥ इस संसार में एक नीरोग दीखता है, तो दूसरा रोगी दिखाई देता है । एक के दरिद्रता दृष्टिगोचर होती है, तो दूसरे के अपार धन देखने में आता है। संसार की ऐसी परस्पर विरोधी अवस्थाओं को देखकर ज्ञानी जन कर्म की परवशता मानने के लिए द्दढ़प्रतिज्ञ होते हैं। भावार्थ संसार की उक्त विषम दशाएं ही जीव, कर्म और परलोक के अस्तित्व को सिद्ध करती हैं ॥२३॥ बालोऽस्तु कश्चित्स्थविरोऽथवा तु न पक्षपातः शमनस्य जातु । ततः सदा चारुतरं विधातुं विवेकिनो हृत्सततं प्रयातु ॥२४॥ कोई बालक हो, अथवा कोई वृद्ध हो, यमराज के इसका कभी कोई पक्षापात ( भेद-भाव ) नहीं है, अर्थात् जब जिसकी आयु पूर्ण हो जाती है, तभी वह मृत्यु के मुख में चला जाता है । इसलिये विवेकी जनों का हृदय सदा आत्म कल्याण करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है ॥२४॥ भद्रे त्वमद्रेरिव मार्गरीतिं प्राप्ता किलास्य प्रगुणप्रणीतिम् । कठोरतामभ्युपगम्य याऽसौ कष्टाय नित्यं ननु देहिराशौ ॥ २५ ॥ हे भद्रे, तू अद्रि (पर्वत) के समान विषम मार्ग वाली अवस्था को प्राप्त हो रही है, जिसकी टेढ़ी-मेढ़ी कुटलिता और कठोरता को प्राप्त होकर नाना प्राणी नित्य ही कष्ट पाया करते हैं ॥२५॥ अवेहि नित्यं विषयेषु कष्टं सुखं तदात्मीयगुणं सुद्दष्टम् । शुष्कास्थियुक् श्वाऽऽस्यभवं च रक्तमस्थ्युत्थमेतीति तदेकभक्तः ॥ २६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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