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________________ 120 थोड़ी देर के लिए यदि परलोक की सत्ता मान भी ली जाय, और उसके सुखद बनाने के लिए तपस्या करना भी आवश्यक समझा जावे, तो भी वह तपस्या वृद्धावस्था में ही करना उचित है, इस मदमाती तारुण्य-पूर्ण अवस्था में आज यह शरीर को सुखाने वाली तपस्या करना क्या तुम्हारा उचित कार्य है ॥१६॥ बाल । एकान्ततोऽसावुपभोगकालस्त्वयै तदार ब्ध इहापि भुक्त्यन्तरं तज्जरणार्थमम्भोऽनुयोग आस्तामध एव किम् ॥१७॥ हे भोले बालक, एकान्त से विषयों के भोगने का यह समय है, उसमें तुमने यह दु दरूप धारण कर लिया है, सो क्या यह तुम्हारे योग्य है? भोजन करने के पश्चात् उसके परिपाक के लिए जल का उपयोग करना अर्थात् पीना उचित है, पर भोजन को किये बिना ही उसका पीना क्या उचित कहा जा सकता है ॥१७॥ अहो मयाऽज्ञायि मनोज्ञमेतदङ्गं मदीयं भुवि किन्तु नेतः । भवत्कमत्युत्तममित्यतोऽहं भवत्यदो यामि मनः समोहम् ॥१८॥ हे महाशय, मैं तो अभी तक यही समझती थी कि इस भूमण्डल पर मेरा यह शरीर ही सबसे अधिक सुन्दर है। किन्तु आज ज्ञात हुआ कि मेरा शरीर सुन्दर नहीं, बल्कि आपका शरीर अति उत्तम है सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य युक्त है, अतएव मेरा मन सम्मोहित हो रहा है और मैं आपसे प्रार्थना कर रही हूँ॥१८॥ - अस्या भवान्नादरमेव कुर्यात्तनुः शुभेयं तव रूपधुर्या । क्षिप्तोऽपि पङ्के न रुचि जहाति मणिस्तथेयं सहजेन भाति ॥ १९ ॥ आपका यह शुभ शरीर अति रूपवाला है और आप इसका आदर नहीं कर रहे हैं, प्रत्युत तपस्या के द्वारा इसे श्री - विहीन कर रहे हैं। जैसे कीचड़ में फेंका गया मणि अपनी सहज कान्ति को नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार इस अवस्था में भी आपका शरीर सहज सौन्दर्य से शोभित हो रहा है ॥१९॥ अकाल एतद् घनघोररूपमात्तं समालोक्य यतीन्द्र भूपः । निम्नोदिते नोरु समीरणेन समुद्यतो वारयितुं क्षणेन ॥२०॥ असमय में आये हुये इस घनघोर संकटरूप मेघ - समूह को देखकर उसे वह यतीन्द्रराज सुदर्शन वक्ष्यमाण उपदेश रुप प्रबल पवन के द्वारा क्षण मात्र में निवारण करने के लिए उद्यत हुए ||२०|| सौन्दर्यमङ्गे किमुपैसि भद्रे घृणास्पद तावदिदं महद्रे । चर्मावृतं वस्तुतयोपरिष्टादन्तः पुनः केवलमस्ति विष्टा ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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