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इत्येवमत्युग्रतपस्तपस्यन् पुराकृतं स्वस्य पुनः समस्यन्। प्रसञ्चरन् वात इवाप्यपापः क्रमादसौ पाटलिपुत्रमाप ॥११॥ इस प्रकार उग्र तप को तपते हुए और अपने पूर्वोपार्जित कर्म को निर्जीर्ण करते हुए वे निष्पाप सुदर्शन मुनिराज पवन के समान विचरते हुए क्रम से पाटलिपुत्र पहुंचे ॥११॥
चर्यानिमित्तं पुरि सञ्चरन्तं विलोक्य दासी तमुदारसन्तम् । सहामुना सङ्गमनाय रूपाजीवां समाहाद्भुतनाभिकूपाम् ॥१२॥
चर्या के निमित्त नगर में विचरते हुए उस उदार सन्त सुदर्शन को देखकर उस पण्डिता दासी ने अद्भुत गम्भीर नाभि वाली उस देवदत्ता वेश्या को इस (सुदर्शन) के साथ संगम करने के लिए कहा ॥१२॥
प्रत्यग्रहीत्सापि तमात्मनीनं चैनः क्षपन्तं सुतरामदीनम् । निभालयन्तं समरुपतोऽन्यं किं निर्धनं किं पुनरत्र धन्यम् ॥१३॥
आत्म-हित में संलग्न, पाप के क्षय करने में उद्यत, स्वयं अदीन भाव के धारक और क्या निर्धन और क्या भाग्यशाली धनी, सबको समान भाव से देखने वाले उन सुदर्शन मुनिराज को उस देवदत्ता वेश्या ने पडिगाह लिया ॥१३॥
अन्तः समासाद्य पुनर्जगाद कामानुरूपोक्तिविचक्षणाऽदः । किमर्थ माचार इयान् विचार्य बाल्येऽपि लब्धस्त्वकया वदाऽऽर्य॥१४॥
पुनः घर के भीतर ले जाकर काम-चेष्टा के अनुरुप वचन बोलने में विचक्षण उस वेश्या ने कहाहे आर्य, इस अति सुकुमार बाल वय में ही यह इतना कठिन आचार क्या विचार कर आपने अंगीकार किया हैं, सो बतलाइये ॥१४॥
भतैः समुद्भूतमिदं शरीरं विपद्य तावद् भवतात् सुधीर । प्राणात्यये का धिषणाऽस्य तेन जीवोऽस्तु यावन्मरणं सुखेन ॥१५॥
हे सुधीर-वीर, यह शरीर तो पृथ्वी आदि पंच भूतों से उत्पन्न हुआ है, जो कि प्राणों के वियोग होने पर बिखर कर उन्हीं पंच भूतों से मिल जायेगा। प्राण वियोग के पश्चात् भी जीव नामक कोई पदार्थ बना रहता है, इस विषय में क्या प्रमाण है ? इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह मरण पर्यन्त सुख से जीवन यापन करे ॥१५॥
प्रमन्यतां चेत्परलोकसत्ता यतस्तपस्याऽततु सम्भवत्ताम् । तथापि सा स्याजरसि व माद्यत्तारुण्यपूर्णस्य तवोचिताऽद्या ॥१६॥
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