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__ 118 _ _ स्त्रैणं तृणं तुल्यमुपाश्रयन्तः शत्रु तथा मित्रतयाऽऽह्वयन्तः । न काञ्चने काञ्चनचित्तवृर्ति प्रयान्ति येषामवृथा प्रवृत्तिः ॥६॥ हृषीक सन्निग्रहणैक वित्ताः स्वभावसम्भावनमात्रचित्ताः । दिवानिशं विश्वहिते प्रवृत्ता निःस्वार्थतः संयमिनो नुमस्तान् ॥७॥
जो नवयुवती स्त्रियों के परम अनुराग को तृण के समान निःसार समझते हैं, जोशत्रु को भी मित्ररूप से आह्वानन करते हैं, जो कांचन (सुवर्ण) पर भी अपनी चित्तवृत्ति को कभी नहीं जाने देते हैं, जिनकी प्रत्येक प्रवृत्ति प्राणिमात्र के लिए कल्याण रूप है, अपनी इन्द्रियों का भली-भांति निग्रह करना ही जिनका परम धन है, अपने आत्म-स्वभाव के निर्मल बनाने में ही जिनका चित्त लगा रहता है, जो दिन-रात विश्व के कल्याण करने में ही निःस्वार्थभाव से संलग्न है, ऐसे उन परम संयमी साधुजनों को हमारा नमस्कार है ॥६-७॥
इत्युक्तमाचारवरं दधानः भवन् गिरां सम्विषयः सदा नः ।
वनाद्वनं सम्व्यचरत्सुवेशः स्वयोगभूत्या पवमान एषः ॥८॥
इस प्रकार उपर कहे गये उत्कृष्ट आचार के धारण करने वाले वे सुवेष-धारी सुदर्शन महामुनि अपने योग-वैभव से जगत् को पवित्र करते हुए वन से वनान्तर में विचरण करने लगे। वे सदा काल ही हमारी वाणी के विषय बने रहें, अर्थात् हम सदा ही ऐसे सुदर्शन मुनिराज की स्तुति करते हैं ॥८॥
नाऽऽमासमापक्षमुताश्नुवानस्त्रिकालयोगं स्वयमादधानः । गिरौ मरौ वृक्षतलेऽयवा नः पूज्यो महात्माऽतपदेकतानः ॥९॥
वे सुदर्शन मुनिराज कभी एक मास और कभी एक पक्ष के उपवास के पश्चात पारणा करते, ग्रीष्म-काल में गिरि- शिखर पर, -शीत-काल में मरुस्थल में और वर्षा-काल में वृक्ष-तल में प्रतिमा योग को धारण कर त्रिकाल योग की साधना करते हुए एकाग्रता से तपश्चरण करने लगे। इसी कारण वे महात्मा सुदर्शन हमारे लिए सदाकाल पूज्य हैं ॥९॥
विपत्रमेतस्य यथा करीरं निश्छायमासीत्सहसा शरीरम् । तपोऽनुभावं दधता तथापि तेनाधुना सत्फलताऽभ्यवापि ॥१०॥
अनेक प्रकार के घोर परीषह और उपसर्गों को सहन करता हुआ सुदर्शन मुनिराज का शरीर सहसा थोड़े ही दिनों में पत्र-रहित कैर वृक्ष के समान छाया-विहीन हो गया। अर्तात् शरीर में हड्डी और चाम ही अविशिष्ट रह गया। तथापि तपके प्रभाव को धारण करने से उन्होंने अनेक प्रकार की ऋद्धि सिद्धियों की सफलता इस समय प्राप्त कर ली थी ॥१०॥
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