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अथ नवमः सर्गः
धरैव शय्या गगनं वितानं स्वबाहुमूलं तदिहोपधानम् । रविप्रतीपश्च निशासु दीपः शमी स जीयाद् गुणगह्वरीपः ॥ १ ॥
पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, आकाश ही जिनका चादर है, अपनी भुजाएँ ही जिनका तकिया है और रात्रि में चन्द्रमा ही जिनके लिए दीपक है, ऐसे परम प्रशम भाव के धारक, गुण गरिष्ठ साधुजन चिरकाल तक जीवें ॥१॥
भिक्षैव वृत्तिः करमेव पात्रं नोद्दिष्टमन्नं कुलमात्मगात्रम् ।
यत्रैव तिष्ठेत् स निजस्य देशः नैराश्यमाशा मम सम्मुदे सः ॥२॥
अयाचित भिक्षा ही जिनके उदर-भरण का साधन है अपना हस्ततल ही जिनके भोजन का पात्र है, जो अनुदृिष्ट - भोजी हैं, अपना शरीर ही जिनका कुल परिवार है, जहाँ पर बैठ जायें वही जिनका देश है, निराशता ही जिनकी आशा या सफलता है, ऐसे साधुजन मेरे हर्ष के लिए होवें ॥२॥
अहो
गिरेर्गह्वरमेव
सौधमरण्यदेशे ऽस्य पुरप्रबोधः ।
मृगादयो वा सहचारिणस्तु धन्यः स एवात्मसुखैकवस्तु ॥३॥ अहो, अरण्य- प्रदेश में ही जिन्हें नगर का बोध हो रहा है, गिरि की गुफा को ही जो भवन मान रहे हैं, मृगादिक वन-चारी जीव ही जिनके सहचारी (मित्र) हैं, ऐसे सहज आत्म-सुख का उपभोग करने वाले वे साधु पुरुष धन्य हैं ॥३॥
हारे प्रहारेऽपि समानबुद्धिमुपैति सम्पद्विपदोः समुद्धि । मृत्युं पुनर्जीवनमीक्षमाणः पृथ्वीतलेऽसौ जयतादकाणः
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जो गले में पहिराये गयेहार में और गले पर किये गये तलवार के प्रहार में समान बुद्धि को रखते हैं, जो सम्पत्ति और विपत्ति दोनों में ही हर्षित रहते हैं, जो मृत्यु को नवजीवन मानते हैं, ऐसे सुद्दष्टि वाले साधुजन इस पृथ्वी तल पर सदा जयवन्त रहें ॥४॥
ज्ञानामृतं भोजनमेकवस्तु सदैव कर्मक्षपणे
मनस्तु ।
दिशैव वासः स्थितिरस्ति येषां नमामि पादावहमाशु तेषाम् ॥५॥
जिनका ज्ञानामृत ही एकमात्र भोजन है, जिसका मन सदा ही कर्म के क्षपण करने में उद्यत रहता है, दशों दिशाएं ही जिनके लिए वस्त्र स्वरूप हैं, ऐसे उन साधु महात्माओं के चरणों को मैं शीघ्र ही नमस्कार करता हूं ॥५॥
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