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________________ _ _ - - - - - - - ........_____- 116 । 116 महिषी श्रुत्वा रहस्यस्फुटिं सम्विधाय निजजीवनत्रुटिम् । पाटलिपुत्रेऽभवद् व्यन्तरी प्राक् कदापि शुभभावनाकरी ॥३५॥ इधर अभयमती रानी रहस्य-भेद की बात सुनकर अपने जीवन का अपघात करके मरी और पहले कभी शुभ भावना करने के फल से पाटलि- पुत्र (पटना) नगर में व्यन्तरी देवी हुई ॥३५॥ दासी समासाद्य च देवदत्तां वेश्यामसौ तन्नगरेऽभजत्ताम् । वृत्तोक्तितोऽनूद्य तदीयचेतः सुदर्शनोच्चालनहे तवेऽतः ॥३६॥ रानी के अपघात कर लेने पर वह पण्डिता दासी भी चम्पानगर से भागी और उसी पाटलिपुत्र नगर में जाकर वहां की प्रसिद्ध देवदत्ता वेश्या को प्राप्त हो उसकी सेवा करने लगी। उसने अपने ऊपर बीते हुए सर्व वृतान्त को सुनाकर उस वेश्या का चित्त सुदर्शन को डिगाने के लिए तैयार कर दिया ॥३६॥ श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्वयं, वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तत्सम्प्रोक्त सुदर्शनेष्य चरिते सर्गोऽसकावुत्तमो, दम्पत्योरुभयोर्व्यतीतिमुदगाद् दीक्षाविधानोऽष्ट मः ॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज जी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणीभूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर-विरचित इस सुदर्शनोदय काव्य में सुदर्शन और मनोरमा की दीक्षा का वर्णन करने वाला आठवां सर्ग समाप्त हुआ । पाक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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