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________________ _ 115 ---------- चातकस्य तनयो घनाघनमपि निधानमथवा निःस्वजनः । मुनिमुदीक्ष्य मुमुदे सुदर्शन इन्दुबिम्बमिव तत्र खञ्जनः ॥३०॥ उन मुनिराज के दर्शन कर वह सुदर्शन इस प्रकार अति हर्षित हुआ, जिस प्रकार कि चातक शिशु महामेघ को देखकर, अथवा दरिद्र जन अकस्मात प्राप्त निधान (धन से भरे घड़े) को देककर और चकोर पक्षी चन्द्र बिम्ब को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होता है |॥३०॥ शिरसा सार्धं च स्वयमेनः समर्पितं मुनिपदयोस्तेन । द्दग्भ्यां समं निबद्धौ हस्तौ कृत्वा हृद् गिरमपि प्रशस्तौ ॥३१॥ उस सुदर्शन मुनिराज के चरणों में भक्ति पूर्वक मस्तक को रखकर नमस्कार किया। उसने उनके चरणों में अपना मस्तक ही नहीं रखा, बल्कि उसके साथ अपने हृदय का समस्त पाप भी स्वयं समर्पित कर दिया। पुन: अपने दोनों हाथ जोड़कर दोनों नयनों के साथ उन्हें भी मुनिराज के दोनों चरणों में संलग्न कर दिया और शुद्ध हृदय से प्रशस्त वाणी - द्वारा उनकी स्तुति की ॥३१॥ समाशास्य यतीशानं न चाशाऽस्य यतः क्वचित् । पुनः स चेलालङ्कारं निश्वचेलाचारमभ्यगात् ॥३२॥ यतः इस सुदर्शन के हृदय में किसी भी सांसारिक वस्तु के प्रति आशा (अभिलाषा) नहीं रह गई थी, अत: उसने इला - (पृथ्वी) के अलंकार स्वरूप उन यतीश्वर की भली-भांति से स्तुति कर स्वयं निश्चेल आचार को धारण किया, अर्थात् वह दिगम्बर मुनि बन गया ॥३२॥ छायेव तं साऽप्यनवर्तमाना तथैव सम्पादितसम्विधाना । तस्यैव साधोर्वचसः प्रमाणाजनी जनुःसार्थमिति बुवाणा ॥३३॥ सुदर्शन के साथ वह मनोरमा भी छाया के समान उसका अनुकरण करती रही और उसके समान ही उसने भी उसी के साथ अभिषेक, पूजन, स्तवन आदि के सर्व विधान सम्पादित किये। पुनः सुदर्शन के मुनि बन जाने पर उन्हीं योगिराज के वचनों को प्रमाण मानकर उसने भी अपने नारी जन्म को इस प्रकार (आर्यिका) बनकर सार्थक किया ॥३३॥ शुक्लैकवस्त्रं प्रतिपद्यमाना परं समस्तोपधिमुज्झिहाना । मनोरमाऽभूदधुनेयमार्या न नग्नभावोऽयमवाचि नार्याः ॥३४॥ मनोरमा ने आर्यिका के व्रत अंगीकार करतेहुए समस्त परिग्रह का त्यागकर एक मात्र श्वेत वस्त्र धारण किया और वह भी सुदर्शन के मुनि बनने के साथ ही आर्यिका बन गई। ग्रन्थकार कहते हैं कि यत: स्त्री के दिगम्बर दीक्षा का सर्वज्ञ देव ने विधान नहीं किया है, अतः मनोरमा ने एक श्वेत वस्त्र शरीर ढकने के लिए रक्खा और सर्व परिग्रह का त्याग कर दिया ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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