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________________ 114 हे प्राणाधार, आप तो मुक्तिलक्ष्मी की वांछा से मेरा परित्याग करने को तैयार हो गये, किन्तु मुझ कुलीन - वंशजा नारी के लिए तो तुम्हारे सिवाय आनन्द का कारण और कौन पुरुष हो सकता है? इसलिए मैं तुम्हारे सहयोग को छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हूं। तुम्हारी जो गति, सो ही हमारी गति होगी, ऐसा मेरा निश्चय है । यदि आप साधु बनने जा रहे हैं तो मैं भी आपके चरणों के समीप ही आर्यिका बनकर विचरण करूंगी ||२७|| वदने सम्फुल्लतामितोऽनेन सुदर्शनः करयोरपि । जिनमन्दिरम् ॥२८॥ पुनः प्रीत्या जगाम ख्यातः मनोरमा के ऐसे प्रेम-परिपूर्ण दृढ़ निश्चय वाले वचन सुनकर अत्यन्त प्रफुल्लित मुख होकर वह सदुर्शन अपने दोनों हाथों में पुष्प लेकर प्रसन्नता पूर्वक भगवान् की पूजन करने के लिए जिनमन्दिर गया ||२८|| जिनयज्ञमहिमा ॥स्थायी ॥ मनोवचनकायैर्जिनपूजां प्रकुरु ज्ञानि भ्रातः ॥१॥ मुदाऽऽदाय मेकोऽम्बुजकलिका पूजनार्थ मायातः गजपादेनाध्वनि मृत्वाऽसौ स्वर्गसम्पदां यातः भूरानन्दस्य यथाविधि तत्कर्ता स्यात्किमु नातः ॥४॥ ॥२॥ ॥३॥ अहो ज्ञानी भाई, जिन-पूजन की महिमा संसार में प्रसिद्ध है, अतएव मन, वचन, काय से जिन पूजन करनी चाहिए। देखो (राजगृह नगर जब महावीर भगवान का समवसरण आया और राजा श्रेणिक हाथी पर सवार होकर नगर निवासियों के साथ भगवान् की पूजन के लिए जा रहे थे, तब ) प्रमोद से एक मेंढक कमल की कली को मुख में दाबकर भगवान् की पूजन के लिए चला किन्तु मार्ग में हाथी के पैर के नीचे दबकर मर गया और स्वर्ग - सम्पदा को प्राप्त हुआ । जब मेंढ़क जैसा एक क्षुद्र प्राणी भी पूजन के फल से स्वर्ग- लक्ष्मी का भोक्ता बना, तब जो भव्यजन विधिपूर्वक जिनपूजन को करेगा, वह परम आनन्द का पात्र क्यों नहीं होगा? अतएव हे ज्ञानी जनो, मन, वचन, काय से जिन-पूजन को करो ॥१-४॥ जिनेश्वरस्याभिषवं सुदर्शनः प्रसाध्य पूजां स्तवनं दयाधनः । अथात्र नाम्ना विमलस्य वाहनं ददर्श योगीश्वरमात्मसाधनम् ॥२९॥ दयारूप धन के धारण करने वाले उस सुदर्शन ने जिन मंदिर में जाकर जिनेश्वर देव का अभिषेक किया, भक्तिभाव से पूजन और स्तवन किया । तदनन्तर उसने जिन - मन्दिर में ही विराजमान, आत्म-साधन करने वाले विमल वाहन नाम के योगीश्वर को देखा ॥ २९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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