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113 देखो - इस मोहिनी मायारूप लक्ष्मी को पाकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भी नागश्य्या पर सोये, जो कि कंस के संहारक थे, जिनके कि एक इशारे मात्र से इस धरातल पर बड़े से बड़े योद्धा भी भयभीत हो जाते थे और सत्यभामा जैसी सती पट्टरानी को दुःख भोगना पड़ा। जब इस माया के योग से श्रीकृष्ण की ऐसी दशा हुई, तो फिर अन्य लोग यदि इसके संयोग से बनावटी चेष्टा वाले, भयभीत और सत्य के पक्ष से रहित हो जावे, तो इसमे क्या आश्चर्य है । जिस माया में फंसकर महादेव जी अपने शरीर में भस्म लगाकर पशुपतिपने को प्राप्त हो गये, विष को खाया और निर्लज्जता अंगीकार कर पार्वती से रमण करने लगे, तो फिर अन्य जनों की तो बात ही क्या है। यह माया अपवर्ग (मोक्ष) का विरोध करने वाली है, आकुलता को उत्पन्न करने वाली है, जड़बुद्धि जलधीश्वर (समुद्र) की पुत्री है और कमल-निवासिनी है अर्थात् क (आत्मा) के मल जो राग-द्वेषादि विकारी भाव हैं, उनमें रहने वाली हैं, एवं सज्जनता का विनाश करने वाली है। ऐसी यह संसार की माया है (मुझे अब इसका परित्याग करना ही चाहिए) ॥१-४॥
एवं विचिन्तयन् गत्वा पुनरात्मरमा प्रति।
सूक्तं समुक्तवानेवं तत्र निम्नोदितं कृ ती ॥२४॥ ___ इस प्रकार चिन्तवन करता हुआ वह कृती सुदर्शन घर पहुँच कर अपनी प्राणप्रिया मनोरमा के प्रति ये निम्नलिखित सुन्दर वचन बोला ॥२४॥
अर्धाङ्गिन्या त्वया सार्धं हे प्रिये रमितं बहु ।
अधुना मन्मनःस्थाया ऋतुकालोऽस्ति निवृत्ते॥२५॥
हे प्राणप्रिये. आज तक मैंने तेरी जैसी मनोहारिणी अर्धाङ्गिनी के साथ बहुत सुख भोगा। किन्तु अब मेरे मन में निवास करने वाली निर्वृत्ति (मुक्तिलक्ष्मी) रूप जीवन-सहचरी का ऋतुकाल आया है ॥२५॥
निशम्येदं भद्रभावात् स्वप्राणेश्वरभाषितम् ॥ मनोरमापि चतुरा समाह समयोचितम् ॥२६॥
अपने प्राणेश्वर के उपर्युक्त वचन सुनकर वह चतुर मनोरमा भी अत्यन्त भद्रता के साथ इस प्रकार समयोचित वचन बोली ॥२६॥
प्राणाधार भवांस्तु मां परिहरे त्सम्वाञ्छ या निवृतेः, किन्त्वानन्दनिबन्धनस्तवदपरः को मे कुलीनस्थितेः। नाहं त्वत्सहयोगमुज्झितुमलं ते या गतिः सैव मेऽस्त्वार्याभूयतया चरानि भवतः सान्निध्यमस्मिन् के मे ॥२७॥
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