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अपने मन, वचन और काय को सबके लिए सरल रखे, अर्थात् सबके साथ निश्छल सरल व्यवहार करे। तथा आकुलता को दूर करने के लिए निरीहता (सन्तोषपना) को धारण करे ॥३७॥
बाह्य वस्तुनि या वाञ्छा सैषा पीडाऽस्ति वस्तुतः । सम्पद्यते स्वयं . जन्तोस्तन्निवृत्तो सुखस्थितिः ॥३८॥
जीव की बाहिरी वस्तु में जो इच्छा होती है, वस्तुतः वही पीड़ा है, उसे पाने की इच्छा का नाम दुःख है। उस इच्छा के दूर होने पर जीव को सुखमयी स्थिति स्वयं प्राप्त हो जाती है, उसे पाने के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती ॥३८।।
तस्योपयोगतो वाञ्छा मोदकस्योपशाम्यति। किञ्चित्कालमतिक्रम्य द्विगुणत्वमथाञ्चति ॥३९॥
अज्ञानी जीव इच्छित वस्तु का उपभोग करके इच्छा को शान्त करना चाहता है, किन्तु कुछ काल के पश्चात् वह इच्छा दुगुनी हो करके आ खड़ी होती है। जैसे मिठाई खाने की इच्छा मोदक के उपभोग से कुछ देर के लिए उपशान्त हो जाती है, परन्तु थोड़ी देर के बाद ही पुनः अन्य पदार्थों के खाने की इच्छा उत्पन्न होकर दुःख देने लगती है। अतः इच्छा की पूर्ति करना सुख प्राप्ति का उपाय नहीं है, किन्तु इच्छा को उत्पन्न नहीं होने देना ही सुख का साधन है ॥३९॥
भोगोपभोग तो वाञ्छा भवेत् प्रत्युत दारुणा। वह्निः किं शान्तिमायाति क्षिप्यमाणेन दारुणा ॥४०॥
भोग और उपभोग रुप विषयों के सेवन करने से तो इच्छा रुप ज्वाला और भी अधिक दारुण रुपसे प्रज्वलित होती है। अग्नि में क्षेपण की गई लकड़ियों से क्या कभी अग्नि शान्ति को प्राप्त होती है? ॥४०॥
ततः कुर्यान्महाभाग इच्छाया विनिवृत्तये। सदाऽऽनन्दोपसम्पत्त्यै त्यागस्यैवावलम्बनम् ॥४१॥
अतएव सदा आनन्द की प्राप्ति के लिए महाभागी पुरुष इच्छा की निवृत्ति करे और त्याग भाव का ही आश्रय लेवें ॥४१॥
इच्छानिरोधमेवातः कुर्वन्ति यतिनायकाः । पादौ येषां प्रणमन्ति देवाश्चतुर्णिकायकाः ॥४२।।
इच्छा के निरोध से ही सच्चे सुख की प्राप्ति होती है, इसीलिए बड़े- बड़े योगीश्वर लोग अपनी इच्छाओं का निरोध ही करते हैं। यही कारण है कि चतुर्निकाय के देव आकर उनके चरणों को नमस्कार करते हैं ॥४२॥
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