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________________ ---- ------------- 110--- 110|-------------- हे सुदर्शन मया यदुत्कृतं क्षम्यतामिति विमत्युपार्जितम् । हृत्तु मोहतमसा समावृतं त्वं हि गच्छ कुरु राज्यमप्यतः ॥१३॥ हे सुदर्शन, मैंने कुबुद्धि के वश होकर जो तुम्हारा अपराध किया है, उसे क्षमा करो। मैं उस समय मोहान्धकार से समावृत (घिरा हुआ) था । (अब मुझे यथार्थ प्रकाश प्राप्त हुआ है।) जाओ और आज से तुम्ही राज्य करो ॥१३॥ इत्यस्योपरि सञ्जगाद स महान् भो भूप किं भाषसे, को दोषस्तव कर्मंणो मम स वै सर्वे जना यद्वशे। श्रीभाजा भवतोचितं च कृतमस्त्येतज्जगद्धे तवे, दण्डं चेदपराधिने न नृपतिर्दधात्स्थितिः का भवेत् ॥१४॥ राजा की बात सुनकर उस सुदर्शन महापुरुष ने कहा - हे राजन् यह आप क्या कह रहे हैं? आपका इसमें क्या दोष हैं? यह तो निश्चय से मेरे ही पूर्वोपार्जित कर्म का फल है, जिसके कि वश में पड़कर सभी प्राणी कष्ट भोग रहे हैं । आप श्रीमान् ने जो कुछ भी किया, वह तो उचित ही किया है और ऐसा करना जगत के हित के लिए योग्य ही है। यदि राजा अपराधी मनुष्य को दण्ड न दे, तो लोक की स्थिति (मर्यादा) कैसे रहेगी ॥१४॥ हे नाथ मे नाथ मनाग्विकारस्श्चेतस्युतैकान्ततया विचारः। शत्रुश्च मित्रं च न कोऽपि लोके हृष्यजनोऽज्ञो निपतेच्च शोके ॥१५॥ हे स्वामिन् इस घटना से मेरे मन में जरा सा भी विकार नहीं है (कि आपने ऐसा क्यों किया?) मैं तो सदा ही एकान्त रूप से यह विचार करता रहता हूं कि इस लोक में न कोई किसी का स्थायी शत्रु है और न मित्र ही । अज्ञानी मनुष्य व्यर्थ ही किसी को मित्र मानकर कभी हर्षित होता है और कभी किसी को शत्रु मानकर शोक में गिरता है ॥१५॥ लोके लोकः स्वार्थभावेन मित्रं नोचेच्छत्रुः सम्भवेन्नात्र चित्रम् । राज्ञी माता मह्यमस्तूक्तकेतू रुष्टः श्रीमान् प्रातिकूल्यं हि हेतुः ॥१६॥ इस संसार में लोग स्वार्थ-साधन के भाव से मित्र बन जाते हैं और यदि स्वार्थ-सिद्धि संभव नहीं हुई, तो शत्रु बन जाते हैं, सो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । (यह तो संसार का नियम ही है) श्रीमती महारानी जी मेरी माता हैं और श्रीमान् महाराज मेरे पिता हैं । यदि आप लोग मेरे ऊपर रुष्ट हों, तो इसमें मेरे पूर्वोपार्जित पापकर्म का उदय ही प्रतिकूलता का कारण है ॥१६॥ वस्तुतस्तु मदमात्सर्याद्याः शत्रवोऽङ्गिन इति प्रतिपाद्याः । तजयाय मतिमान् धृतयुक्तिरिस्तु सैव खलु सम्प्रति मुक्तिः ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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