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109 इस आकाश वाणी को सुनकर राजा का तुरन्त सब अज्ञान-अन्धकार नष्ट हो गया और उसके हृदय में तभी कोई अपूर्व प्रकाश प्रकट हुआ और वह विचारने लगा ॥११॥
कवालीयो राग :समस्ति यताऽऽत्मनो नूनं कोऽपि महिमूय॑हो महिमा स्थायी॥ न स विलापी न मुद्वापी द्दश्यवस्तुनि किल कदापि। समन्तात्तत्र विधिशापिन्यद्दश्ये स्वात्मनीव हि मा ॥समस्ति.॥१॥ नरोत्तमवीनता यस्मान्न भोगाधीनता स्वस्मात् । सुभगतमपक्षिणस्तस्मात् किं करोत्येव साप्यहिमा ।समस्ति.२॥ न दक् खलु दोषमायाता सदानन्दा समा याता । क्वापि बाधा समायाता दुमालीवेष्यते सहिमा ॥समस्ति.॥३॥ इयं भूराश्रितास्त्यभितः कण्ट कैर्यत्पदो रुदितः। स चर्मसमाश्रयो यदितः कुतः स्यात्तस्य वा न हिमा सिमस्ति. ४॥
अहो, निश्चय से इस मही-मण्डल पर जितेन्द्रिय महापुरुषों की कोई अपूर्व ही महिमा है, जो इन बाहिरी दृश्य वस्तुओं पर प्रतिकूलता के समय न कभी विलाप करते हैं और न अनुकूलता के समय हर्षित ही होते हैं। वे तो इस सम्पत्ति-विपत्ति को अद्दश्य विधि (देव या कर्म) का शाप समझकर सर्व ओर से अपने मन का निग्रह कर अपने आत्म-चिन्तन में निमग्न रहते हैं । ऐसे पुरुषोत्तम तो भगवद् भक्ति में यतः तत्पर रहते हैं, अतः उनके भोगों की अधीनता नहीं होती । जैसे पुरुषोत्तम कृष्ण के वाहन वैनतेय (गरुड़) के आश्रित रहने वाले जीव भोगों (सर्पो) से अस्पृष्ट रहते हैं । जो अति उत्तम गरुड़रूप धर्म का पक्ष अंगीकार करता है, उसका दुर्जन रूप सर्प क्या कर सकता है? ऐसे धार्मिक पुरुष की दृष्टि किसी के दोष देखने की ओर नहीं जाती, उसका सारा समय सदा आनन्दमय बीतता है। यदि कदाचित् पूर्व पाप के उदय से कोई बाधा आ भी जाय, तो वह वृक्ष पंक्ति पर पड़े हुए पाले के समान सहज में निकल जाती है। यद्यपि यह सर्व पृथ्वी कण्टकों से व्याप्त है, तथापि जिसके चरण चमड़े की जूतियों से युक्त हैं, उसको उन कांटों से क्या बाधा हो सकती है ॥१-४॥
इत्येवं बहुशः स्तुत्वा निपपात स पादयोः ।
आग संशुद्धये राजा सुदर्शनमहात्मनः ॥१२॥ इस प्रकार बहुत भक्ति-पूर्वक सुदर्शन की स्तुति करके वह राजा अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए महात्मा सुदर्शन के चरणों में पड़ गया और बोला ॥१२॥
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