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राजा की आज्ञानुसार सुदर्शन को मारने के लिए चाण्डाल द्वारा किये गये तलवार के प्रहार सुदर्शन के गले में हार रूप में परिणत हुए देखकर दर्शक लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ, और उस चाण्डाल के चित्त में इस प्रकार की वक्ष्यमाण विचार धारा प्रवाहित हुई ॥५॥
अहो ममासिः प्रतिपक्षनाशी किलाहिराशीविष आः किमासीत् । मृणालकल्पः सुतरामनल्प तूलोक्ततल्पं प्रति कोऽत्र कल्पः ॥६॥ __ अहो, आशीविष सर्प के समान प्रतिपक्ष का नाश करने वाली मेरी इस तलवार को आज क्या हो गया? जो रुई के विशाल गद्दे पर कमल-- नाल के समान कोमल हार बनकर परिणत हो रही है ? क्या बात है, कुछ समझ नहीं पड़ता ॥६॥
एवं समागत्य निवेदितोऽभूदेके न भूपः सुतरां रुषोभूः । पाषण्डिनस्तस्य विलोकयामि तन्त्रायितत्वं विलयं नयामि ॥७॥
यह सब द्दश्य देखने वाले दर्शकों में से किसी एक सेवक ने जाकर यह सब वृत्तान्त राजा से निवेदन किया, जिसे सुनकर राजा और भी अधिक रोष को प्राप्त हुआ। और बोला - मैं अभी जाकर उस पाखण्डी के तंत्र पाण्डित्य (टोटा-जादू) को देखता हूँ और उसे समाप्त करता हूँ ॥७॥
राज्याः किल स्वार्थपरायणत्वं विलोक्य भूपस्य च मौढयसत्वम् । धर्मस्य तत्त्वं च समीक्ष्य तावत्सुदर्शनोऽभूदितिक्ल्टप्तभावः ॥८॥
इधर सुदर्शन रानी की स्वार्थ परायणता और राजा की मूढ़ता का अन . । कर एवं धर्म का माहात्म्य देखकर मन में वस्तु तत्त्व का चिन्तवन करने लगा ॥८॥
स्वयमिति यावदुपेत्य महीशः मारणार्थमस्यात्तनयी सः । सम्बभूव वचनं नभसोऽपि निम्नरूपतस्तत्स्मयलोपि ॥९॥
इतने में आकर और सुदर्शन को मारने के लिए हाथ में तलवार लेकर राजा ज्यों ही स्वयं उद्यत हुआ कि तभी उसके अभिमान का नाश करने वाली आकाशवाणी इस प्रकार प्रकट हुई ॥९॥ जितेन्द्रियो महानेषस्वदारे ष्वस्ति तोषवान् । राजन्निरीक्ष्यतामित्थं गृहच्छिद्रं परीक्ष्यताम् ॥१०॥
हे राजन्, यह सुदर्शन अपनी ही स्त्री में सन्तुष्ट रहने वाला महान् जितेन्द्रिय पुरुष है, अर्थात् यह निर्दोष है। अपने ही घर के छिद्रको देखो और यथार्थ रहस्य का निरीक्षण करो ॥१०॥ निशम्येदं महीशस्य तमो विलयमभ्यगात्। हृदये कोऽप्यपूर्वो हि प्रकाशः समभूत्तदा ॥११॥
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