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________________ अथ अष्टमः सर्गः। अन्तःपुरं द्वाःस्थनिरन्तरायि सुदर्शनः प्रोषधसम्विधायी। विज्ञैरवाचीत्यवटः प्रयोगः स्यादत्र कश्चित्त्वपरो हि रोग : ॥१॥ जब उपर्युक्त घटना नगर-निवासियों ने सुनी तो कितने ही जानकार लोगों ने कहा - अन्तःपुर पर तो निरन्तराय द्वारपालों का पहरा रहता है, और सुदर्शन सेठ पर्वी के दिन प्रोषधोपवास धारण कर स्मशान में रहता है, फिर यह अघटनीय घटना कैसे घट सकती है? इसमें तो कोई दूसरा ही रोग (रहस्य) प्रतीत होता है ॥१॥ श्मसानमासाद्य कुतोऽपि सिद्धिरुपार्जिताऽनेन सुमित्र विद्धि । कः कामबाणादतिवर्तितः स्यादित्थं परेण प्रकृता समस्या ॥२॥ विज्ञजनों का उक्त वक्तव्य सुनकर कोई मनचला व्यक्ति बोला - मित्र, ऐसा प्रतीत होता है कि स्मशान में रहकर सुदर्शन ने किसी तपस्या विशेष से कोई सिद्धि प्राप्त कर ली है और उसके द्वारा अन्तःपुर में पहुंच गया है. यह तुम सत्य समझो क्योंकि इस संसार में काम के वाणों से कौन अछूता रह सकता है। इस प्रकार किसी पुरुष ने प्रकृत समस्या का समाधान किया ॥२॥ मनाङ् न भूपेन कतो विचारः कच्चिन्महिष्याश्च भवेद्विकारः । चेष्टा स्त्रियां काचिदचिन्तनीयाऽवनाविहान्यो निजगौ महीयान् ॥३॥ उस पुरुष की बात को सुनकर तीसरा समझदार व्यक्ति बोला - राजा ने इस घटना पर जरा सा भी विचार नहीं किया कि कहीं यह रानी का ही कोई षडयंत्र न हो (और बिना विचारे ही सुदर्शन को मारने की आज्ञा दे दी) । इस संसार में स्त्रियों की कितनी ही चेष्टाएं अचिन्तनीय होती हैं ॥३॥ विचारजाते स्विदनेकरुपे जनेषु वा रोषमितेऽपि भूपे। . सुदर्शनोऽकारि विकारि हस्ते जानन्ति सम्यग्विभवो रहस्ते ॥४॥ इस प्रकार लोगों में इधर अनेकरूप से विचार हो रहे थे और उधर राजा ने रोष में आकर सुदर्शन को मारने का आदेश दे दिया। लोग कह रहे थे कि इसका यथार्थ रहस्य तो सर्वज्ञ प्रभु ही भली-भांति जानते हैं ४॥ कृतान प्रहारान् समुदीक्ष्य हारायितप्रकारांस्तु विचारधारा । चाण्डालचेतस्युदिता किलेतः सविस्मये दर्शक सञ्चयेऽतः ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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