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________________ 111 इसलिए वास्तव में मद, मात्सर्य आदि दुर्भाव ही जीवों के यथार्थ शत्रु हैं, ऐसा समझना चाहिए और उन दुर्भावों को जीतने के लिए बुद्धिमान् मनुष्य को धैर्य-युक्त होकर प्रयत्न करना चाहिए। यह उपाय ही जीव की वास्तविक मुक्तिका आज सर्वोत्तम मार्ग है ॥१७॥ सुखं च दुःखं जगतीह जन्तोः स्वकर्मयोगाद् दुरितार्थमन्तो। मिष्टं सितास्वादन आस्यमस्तु तिक्तायते यन्मरिचाशिनस्तु ॥१८॥ हे दुरित - (पाप) विनाशेच्छुक महाराज, इस जगत् में जीवों के सुख और दुःख अपने ही द्वारा किये कर्म के योग से प्राप्त होते हैं । देखो मिश्री का आस्वादन करने पर मुख मीठा होता है और मिर्च खाने वाले का मुख जलता है ॥१८॥ विज्ञो न सम्पत्तिषु हर्षमेति विपत्सु शोकं च मनागथेति। दिनानि अत्येति तटस्थ एव स्वशक्तितोऽसौ कृततीर्थसेवः ॥१९॥ संसार का ऐसा स्वभाव जानकर ज्ञानी जन सम्पत्तियों के आने पर न हर्ष को प्राप्त होता है और न विपत्तियों के आने पर रंचमात्र भी शोक को प्राप्त होता है । किन्तु वह दोनों ही अवस्थाओं में मध्यस्थ रहकर अपने जीवन के दिन व्यतीत करता है और अपनी शक्ति के अनुसार धर्मरूप तीर्थ की सेवा करता रहता है ॥१९॥ यद्वा निशाऽहःस्थितिवद्विपत्ति सम्पत्तियुग्मं च समानमत्ति। सतां प्रवृत्तिः प्रकृतानुरागा सन्ध्येव बन्ध्येव विभूतिभागात् ॥२०॥ अथवा जैसे रात्रि और दिन के बीच में रहने वाली सन्ध्या सदा एक सी लालिमा को धारण किये रहती है, उसी प्रकार सज्जनों की प्रवृत्ति भी सम्पत्ति और विपत्ती इन दोनों के मध्य समान भाव को धारण किये रहती है ।वह एक में अनुराग और दूसरे में विराग भाव को प्राप्त नहीं होती ॥२०॥ मोहादहो पश्यति बाह्यवस्तुन्यङ्गीति सौख्यं गुणमात्मनस्तु। भ्रमाद्यथाऽऽकाशगतेन्दुबिम्बमङ्गीकरोति प्रतिवारिडिम्बः ॥२१॥ अहो आश्चर्य है कि सुख जो अपनी आत्मा का गुण है, उसे यह संसारी प्राणी मोह के वश होकर बाहिरी वस्तुओं में देखता है? अर्थात् बाहिरी पदार्थों में सुख की कल्पना करके यह अज्ञ प्राणी उनके पीछे दौड़ता रहता है । जैसे कोई भोला बालक आकाश गत चन्द्रबिम्ब को भ्रम से जल में अवस्थित समझकर उसे पकड़ने के लिए छटपटाता रहता है ॥२१॥ धरा पुरान्यैरुररीकृता वाऽसकाविदानीं भवता धृता वा। स्वदारसन्तोषवतो न भोग्या ममाधुना निर्वृतिरेव योग्या ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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