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स्त्रिया मुखं पद्मरुखं ब्रुवाणा भवन्ति किन्नाथ विदेकशाणा । लालाविलं शोणितकोणितत्वान्न जातु रुच्यर्थमिहैमि तत्त्वात् ॥२४॥
नाथ, जो लोग स्त्री के मुख को कमल सद्दश वर्णन करते है, वे क्या विवेक की कसौटी वाले हैं? नहीं । यह मुख तो लार से भरा हुआ है, केवल रक्त के संचार से ऊपर चमकीला दिखाई देता है । मैं तो तत्त्वतः इसमें ऐसी कोई उत्तमता नहीं देखता हूं कि जिससे इसमें रमने की इच्छा करूं ॥२४॥
कालोपयोगेन हि मांसवृद्धी कुचच्छलात्तत्र समात्तगृद्धिः । पीयूषकुम्भाविति हन्त कामी वदत्यहो सम्प्रति किम्वदामि ॥ २५ ॥
स्त्री के शरीर में काल के संयोग से वक्षःस्थल पर जो मांस की वृद्धि हो जाती है, उन्हें ही लोग कुच या स्तन कहने लगते है। अत्यन्त दुःख की बात है कि उनमें आसक्ति को प्राप्त हुआ कामी पुरुष उन्हें अमृत कुम्भ कहता है। मैं उनकी इस कामान्धता परिपूर्ण मूर्खता पर अब क्या कहूँ. ॥२५॥
स्त्रिया यदङ्गं समवेत्य गूढमानन्दितः सम्भवतीह मूढः । विलोपमं तत्कलिलोक्ततन्तु दौर्गन्द्ययुक्तं कृमिभिर्भृतन्तु ॥ २६ ॥
इस संसार में स्त्री के जिस गूढ़ (गुप्त) अंग को देखकर मूढ़ मनुष्य आनन्दित हो उठता है वह तो वास्तव सर्प के बिल के समान है, जो सदा ही सड़े हुए क्लेद से व्याप्त, दुर्गन्ध युक्त और कृमियों से भरा हुआ रहता है ||२६||
शश्वन्मलस्त्रावि नवप्रवाहं शरीरमेतत्समुपैम्यथाऽहम । पित्रोश्च मूत्रेन्द्रियपूतिमूलं घृणास्पदं के वलमस्य तूलम् ॥२७॥
यह शरीर निरन्तर अपने नौ द्वारों से मल को बहाता रहता है, माता पिता के रज और वीर्य के संयोग से उत्पन्न हुआ है घृणा का स्थान है और इसके गुप्त अंग वस्तुतः दुर्गन्ध-मूलक मूत्रेन्द्रिय रुप है। लोगों ने कामान्ध होकर इसे केवल सौन्दर्य का तूल दे रक्खा है. यथार्थ में शरीर के भीतर सौन्दर्य और आकर्षण की कोई वस्तु नहीं है ॥२७॥
यतो,
द्दष्ट्या याऽपहरेन्मनोऽपि तु धनोद्गीतिं समायोजने, बाचां रोतिमिति प्रसङ्ग करणे स्फीतिं पुनर्मोचने । सर्वाङ्गीणमथापकृष्टु मुदिता मर्त्यस्य सारं मायामूर्तिरनङ्ग जूर्तिरिति चेत्सौख्यस्य पूर्तिः कुतः
॥२८॥
जो स्त्री अपनी दृष्ठि से तो मनुष्य मन को हर लेती है, समायोग होने पर धन का अपहरण करती है, शरीर प्रसंग करने पर वचनों की रीति को हरती है और शुक्र - विमोचन के समय शारीरिक
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