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________________ - - - 103 स्फूर्ति को समाप्त कर देती है । इस प्रकार यह स्त्री मनुष्य के सर्वस्व मन, वचन, धन और तनरूप सार का सर्वाङ्ग से अपकर्षण करने वाली है, तथा जो माया की मूर्ति है और काम की जूर्ति है - काम-ज्वर उत्पन्न करने वाली है, ऐसी स्त्री से मनुष्य के सुख की पूर्ति कैसे हो सकती है, अर्थात कभी नहीं हो सकती ॥२८॥ हावे च भावे धृतिकक्षदावे राज्ञी क्षमा ब्रह्मगुणैकनावे । दुरिङ्गितं भूरि चकार तावन्न तस्य किञ्चिद्विचकार भावम् ॥२९॥ इस प्रकार विचार युक्त ब्रह्मचर्य रूप अद्वितीय गुणवाली नाव में बैठे हुए सुदर्शन को डिगाने वाले तथा उसके धैर्यरूप सघन वन के जलाने के लिए दावाग्निका काम करने वाले अनेक प्रकार के हावभाव करने में समर्थ उस रानी ने बहुत बुरी-बुरी चेष्टाएं की, किन्तु सुदर्शन के मन को जरा भी विकार रूप नहीं कर सकी ॥२९॥ यद्दच्छ याऽनुयुक्तापि न जातु फलिता नरि । तदा विलक्षभावेन जगादेतीश्वरीत्वरी ॥३०॥ अपनी इच्छानुसार निरंकुश रुप से काम-भाव जागृत करने वाले सभी उपायों के कर लेने पर भी जब सुदर्शन के साथसंगम करने में उसकी कोई भी इच्छा सफल नहीं हुई, तब वह दुराचारिणी रानी निराश भाव से इस प्रकार बोली ॥३०॥ उत्खातांघिपवद्धि निष्फलमितः सजायते चुम्बितं, पिष्टोपात्तशरीरवच्चा लुलितोऽप्येवं न याति स्मितम् । सम्भृष्टामरवद्विसर्जनमतः स्याद्दासि अस्योचितं, भिन्नं जातु न मे द्दगन्तशरकै श्चेतोऽस्य सम्वर्मितम् ॥३१॥ हे दासी, मेरा चुम्बन उखड़े हुए वृक्ष के समान इस पर निष्फल हो रहा है, बार-बार गुद-गुदाये जाने पर भी आटे की पिट्टी से बने हुए शरीर के समान यह हास्य को नहीं प्राप्त हो रहा है वैराग्यरूप कवच से सुरक्षित इसका चित्त मेरे तीक्ष्ण कटाक्ष-रूप वाणों से जरा भी नहीं भेदा जा सका है, इसलिए हे सखि, खण्डित हुए देव-बिम्ब के समान अब इसका विसर्जन करना ही उचित है ॥३१॥ सन्निशम्य वचो राज्याः पण्डिता खण्डिता हृदि । सम्भवित्री समाहाहो विपदाप्ताऽपि सम्पदि ॥३२॥ इस प्रकार कहे गये रानी के वचन सुनकर वह पण्डिता दासी अपने हृदय में बहुत ही दुखी हुई और विचारने लगी कि मैने रानी के सुख के लिए जो कार्य किया था, अहो, वह अब दोनों की विपत्ति का कारण हो गया है, ऐसा विचार करती हुई रानी से बोली ॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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