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________________ ܫܫܝܫܚܫܝܫܝܫܝܗܫ 101 ܫܢܫܝܫܫܫܫ इस प्रकार कहकर उस रानी ने अपने दोनों स्तन वस्त्र रहित कर दिये, जो कि रति देवी के क्रीड़ा करने के दो पर्वत के समान प्रतीत होते थे, अथवा यौवनरूप धन-सम्पदा से भरे हुए दो कुम्भ सरीखे शोभित होते थे, अथवा कामरूप अमृत रस के दो पिण्ड से दिखाई देते थे ॥१८॥ बापी तदा पीनपुनीतजानुर्गभीरगर्तेकरसां तथा नुः । यूनो द्दगाप्लावन हे तवे तु विकासयामास रतीशके तुः ॥९९।। यौवन-अवस्था के कारण जिसकी दोनों जंघाएं हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर थीं, ऐसी कामदेव की पताका के समान प्रतीत होने वाली उस रानी ने गम्भीरता रूप रस से परिपूर्ण अपनी नाभि को प्रगट करके दिखाया, जो कि कामी युवक जनों के नेत्रों को मंगल स्नान कराने के लिए रस-भरी वापिकासी दिख रही थी ॥१९॥ . अभीष्ट सिद्धेः सुतरामुपायस्तथाऽस्य कामोदयकारणाय । अकारि निर्लजतया तया तु नाहो कुलीनत्वमधारि जातु ॥२०॥ तत्पश्चात् अपने अभीष्ट को सिद्ध करने के लिए, तथा सुदर्शन के मन में काम-भाव को जागृत करने के लिए जो भी उपाय उसके ध्यान में आया, उसने निर्लज्ज होकर उसे किया, सुदर्शन को. उत्तेजित करने के लिए कोई कोर-कसर न उठा रक्खी । अपनी कुलीनता को तो वह कामान्ध रानी एक दम भूल गई ॥२०॥ प्राकाशि यावत्तु तयाऽथवाऽऽगः प्रयुक्तये साम्प्रतमङ्गभागः । तथा तथा प्रत्युत सम्विरागमालब्धवानेव समर्त्यनागः ॥२१॥ इस प्रकार पाप का संचय करने के लिए वह रानी जैसे-जैसे अपने स्तन आदि अंगों को प्रकट करती जा रही थी, वैसे-वैसे ही वह पुरुष शिरोमणि सुदर्शन राग के स्थान पर विराग भाव को प्राप्त हो रहा था ॥२१॥ मदीयं मांसलं देहं द्दष्ट वेयं मोहमागता। दुरन्तदुरितेनाहो चेतनाऽस्याः समावृता ॥२२॥ रानी की यह खोटी प्रवृत्ति देखकर सुदर्शन विचारने लगे मेरे हृष्ट-पुष्ट मांसल शरीर को देखकर यह रानी मोहित हो रही है? अहो, घोर पाप के उदय से इसकी चेतना शक्ति बिल्कुल आवृत्त होगई है- विचारशक्ति लुप्त हो गई है ॥२२॥ शरीरमेतन्मलमूत्रकुण्डं यत्पूतिमांसास्थिवसादिझुण्डम् । उपर्युपात्तं ननु चर्मणा तु विचारहीनाय परं विभातु ॥२३॥ __ यह मानव-शरीर तो मल मूत्र का कुण्ड है और दुर्गन्धित मांस, हड्डी, चर्बी आदि घृणित पदार्थों का पिण्ड है । केवल ऊपर से इस चमकीले चमड़े के द्वारा लिपटा है, इसलिए विचार-शून्य मूर्ख लोगों को सुन्दर प्रतीत होता है ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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