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________________ परोपकरणं पुण्याय पुनर्न किमिति यथाशक्ति सञ्चरतु ॥२॥ भूतलके वारिणि बुदबुदतामनुसरतु सम्भूयात्कोऽपि नेति सम्वदतु 11811 भूतात्मक मङ्गं ॥३॥ भूराकु लतायाः हे सौमनस्य, मैं जो कुछ कहती हूँ, उसे अपने मन में स्थान देवें। उदार हृदयवाले लोगों की दृष्टि में परलोक क्या है? कुछ भी नहीं है। फिर इसके लिए क्यों व्यर्थ कष्ट उठाया जाय? दूसरे का उपकार करना पुण्य के लिए माना गया है, फिर यथा शक्ति क्यों न पुण्य के कार्यों का आचरण किया जाय ? यह शरीर तो पृथ्वी, जल आदि पंच भूतों से बना हुआ है, सो वह जलमें उठे हुए बवूले के समान विलीनताको प्राप्त होगा. फिर ऐसे क्षण विनश्वर लोक में कौन सदा आकुलता को प्राप्त होवे, सो कहो । इसलिए हे प्रियदर्शन, महापुरुषों को तो सारा संसार ही अपना मानकर सबकों सुखी करने का प्रयत्न करना चाहिए ॥१-४॥ संगच्छाभयमतिमिति 100 मुनिराट् ॥स्थायी ॥ केशपूरकं कोमलकुटिलं चन्द्रमसः प्रततं व्रज रुचिरात् ॥१॥ सुद्दढं हृदि कुम्भकमञ्चवरं किन्न यतस्त्वं प्रभवेः शुचिराट् ॥२॥ तावदनुरुसादितः सुभगाद् रेचय रेतः सुखिताऽस्तु चिरात् ॥३॥ भूरायामस्य प्राणानामित्येवं त्वं भवतादचिरात् ॥४॥ हे मौन धारण करने वाले मुनिराज, यदि आपको प्राणायाम करना ही अभीष्ट हैं, तो इस प्रकार से करो पहले निर्भय बुद्धि होकर चन्द्र स्वर से पूरक योग किया जाता है अर्थात् बाहिर से शुद्ध वायु को भीतर खींचा जाता है। पुनः कुम्भकयोग द्वारा उस वायु को हृदय में प्रयत्न पूर्वक रोका जाता है, जिससे कि हृदय निर्मल और दृढ बने । तत्पश्चात् अनुरुसारथी वाले सूर्य नामक स्वर से धीरे-धीरे उस वायु को बाहिर निकाला जाता है अर्थात वायु का रेचन किया जाता है। यह प्राणायाम की विधि है । सो हे पवित्रता को धारण करने वाले शुद्ध मुनिराज, आप अब निर्भय होकर इस अभयमती के साथ प्रेम करो, जिसके चन्द्रसमान प्रकाशमान मुख मण्डल के पास में मस्तक पर कोमल और कुटिलरूप केश- पूरक (वेणीबन्ध) बना हुआ है, उसे पहले ग्रहण करो । तत्पश्चात् कुम्भ का अनुकरण करने वाले, वक्षः स्थल पर अवस्थित सुद्दढ़ उन्नत कुच - मण्डल का आलिंगन करो । पुनः जघनस्थल के सुभग मदनमन्दिर में चिरकाल तक सुखमयी सुषुप्ति का अनुभव करते हुए अपने वीर्य का रेचन करो । यही सच्चे प्राणायाम की विधि है, सो हे मौन धारक सुदर्शन, तुम निर्भय होकर इस अभयमती के साथ चिरकाल तक प्राणों को आनन्द देने वाला प्राणायाम करो ॥१-४॥ - कुचौ स्वकीयौ विवृतौ तयाऽतः रतेरिवाक्रीडधरौ स्म भातः । निधानकुम्भाविव यौवनस्य परिप्लवौ कामसुधारसस्य ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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