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....- 98 ... पर यथाजात (नग्न) रुपधारी अकेले सुदर्शन को ध्यानस्थ देखकर अत्यन्त आनन्दित हुई ॥१०॥
नासाद्दष्टिरथ प्रलम्बितकरो ध्यानैकतानत्वतः, श्रीदेवाद्रिवदप्रकम्प इति योऽप्यक्षुब्धभावं गतः । पारावार इव स्थितः पुनरहो शून्ये श्मसाने तया, दास्याऽदर्शि सुदर्शनो मुनिरिव श्रीमान् द्दशा सूत्कया ॥११॥
दासी ने देखा कि यह श्रीमान सुदर्शन नासा-द्दष्टि रखे, दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाये, सुमेरु पर्वत के समान अकम्प-भाव से अवस्थित, ध्यान में निमग्न, क्षोभ रहित समुद्र के समान गम्भीर होकर इस शून्य स्मशान में मुनि के समान नग्न रुप से विराजमान है, तो उसके आश्चर्य और आनन्द की सीमा न रही और वह अति उत्सुकता से उन्हें देखने लगी ॥११॥
द्दष्टवाऽवाचि महाशयासि किमिहाऽऽगत्य स्थितः किं तया, वामाङ्गचा परिभत्सितः स्ववपुषः सौन्दर्यगर्विष्ठ या। हन्ताज्ञा भुवि या भवद्विधनरं सन्त्यक्त्वत्यस्तुसा, त्वय्याऽऽसक्त मना . नरेशललना भाग्योदयेनेद्दशा ॥१२॥
सुदर्शन को इस प्रकार ध्यानस्थ देखकर वह दासी बोली - हे महाशय, यहां आकर इस प्रकार से नंग-धडंग क्यों खड़े हैं? अपने शरीर के सौन्दर्य से गर्व को प्राप्त आपकी उस अर्धाङ्गिनी ने क्या आपकी भर्त्सना करके घर से बाहिर निकाल दिया है? ओफ, वह स्त्री महामूर्खा है, जो कि संसार में अपूर्व सौन्दर्य के धारक जैसे सुन्दर पुरुष को भी छोड़ देती है। किन्तु इस समय अपूर्व भाग्योदय से यहां के राजा की रानी आप पर आसक्त चित्त होकर आपकी प्रतीक्षा कर रही है ॥१२॥
यस्या दर्शनमपि सुदुर्लभं लोकानामिति साम्प्रतं शुभम् । तव दर्शनमिति साऽभिवाञ्छति भाग्य तदथ पचेलिमे सति ॥१३॥ जिस रानी का दर्शन होना भी लोगों को अति दुर्लभ है, वही रानी आज तुम्हारे भाग्य के प्रबल परिपाक से तुम्हारे दर्शन करने की इच्छा कर रही है ॥१३॥
किमु शर्करिले वससि हतत्वाद् व्रज नृपसौध नयामि च त्वाम् ।
दुग्धाब्धिवदुजवले तथा कं शयानके ऽभयमत्या साकम् ॥१४॥
हे महानुभाव, हताश होकर इस कण्टकाकीर्ण कंकरीले स्थान पर क्यों अवस्थित हैं? चलो, मैं तुम्हें राज-भवन में ले चलती हूं । वहां पर आप क्षीर सागर के समान उज्वल कोमल शय्या पर अभयमती रानी के साथ आनन्द का अनुभव करें ॥१४॥
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