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घनघोरसन्तमसगात्री-यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः ॥स्थायी॥ अस्तं गता भास्वतः सत्ता के वलबोधनपात्री । वनवासिषु सङ्कोचदशा सा षट्चरणस्थितिहात्री-यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः ॥१॥ द्विजवर्गे निष्क्रियतां दृष्ट वा किं निगदानि भ्रात्दन् । भीषणता श्रणतादिव खेदं जगतो दुरितख्यात्री-यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः ॥२॥ दिग्भ्रममेति न वेत्ति सुमार्ग कथमपि तथा सुयात्री । किं कर्तव्यविमूढा जाता सकलापीयं धात्री-यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः ॥३॥ भूरास्तां चन्द्रमसस्तमसो हन्त्री शान्तिविधात्री । सकलजनानां निजवित्तस्य च लुण्टाकेभ्यस्त्रात्री-यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः ॥४॥
अहो बड़ा अश्चर्य है कि देखते ही देखते बहुत ही शीघ्रता से घन घोर अन्धकार को फैलाने वाली यह कलिकालरूप रात्रि आ गई. जहां पर कि आत्मा को बल-दायक विद्या का प्रचार करने वाले ज्ञानी महर्षी रूप सर्य की सत्ता अस्तंगत हो गई है। तथा रात्रि में जैसे कमल मद्रित हो जाते हैं और उन पर भौरे नहीं रहते, वैसे ही आज श्रावक लोगों की संख्या भी बहुत कम हो गई है। जो थोड़ी बहुत है, वह भी देवपूजा आदि षट् कर्मों के परिपालन में उत्साह रहित हो रहे हैं । जैसे रात्रि में द्विजवर्ग (पक्षी-समूह) गमन-संचारादिसे रहित होकर निष्क्रिय बना वृक्षों पर बैठा रहता है, उसी प्रकार इस कलिरूप रात्रि में द्विजवर्ग (ब्राह्मण लोग) अपनी धार्मिक क्रियाओं का आचरण छोड़कर निष्क्रिय हो रहे हैं । रात्रि में जैसे चोरी-जारी आदि पापों की वृद्धि होती है और जगत के खेद, भय आदि बढ़ जाते हैं, वैसे ही आज इस कलिरूप रात्रि में नाना प्रकार के पापों की वृद्धि हो रही है और लोग
न नाना प्रकार के द:खों को उठा रहे हैं. उन्हें मैं आप भाइयों से क्या कहँ ? रात्रि में पथिक जैसे दिग्भ्रम को प्राप्त हो जाता है और अपने गन्तव्य मार्ग को भूल जाता है, वैसे ही आज प्रत्येक प्राणी धर्म के विषय में दिग्मूढ़ हो रहा है, सुमार्ग पर किसी भी प्रकार से नहीं चल रहा है और यह सारी पृथ्वी ही किंकर्तव्य-विमूढ़ हो रही है। जैसे रात्रि में अन्धकार का नाशक और शान्ति का विधायक चन्द्रमा का उदय होता है वैसे ही आज इस कलिकालरूपी रात्रि में भी क्वचित् कदाचित् लोगों के अज्ञान को हरने वाले और धर्म का प्रकाश करने वाले शान्ति के विधायक शान्तिसागर जैसे आचार्य का जन्म हो जाता है, तो वे ज्ञानरूप धन के लुटेरों से सकल जनों की रक्षा करते हैं ॥१-४||
तदा गत्वा श्मशानं सा पश्यति स्मेति पण्डिता। एकाकिनं यथाजातं किलाऽऽनन्देन मण्डिता ॥१०॥ उस कृष्ण पक्ष की ऐसी घन-घोर अंधेरी रात्रि में वह पण्डिता दासीस्मशान भूमि में गई और वहां
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