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विघ्नकरणो
जातोऽन्यदा
सम्वदा
योग्यत्वाज्ञतयैव म्येताद्दकरणैर्घृणैक विषयो
नाहं भवेयं कदा ॥७॥
दासी के इस प्रकार विलापमय वचन सुनकर भय से कांपता हुआ द्वारापाल बोला हे पण्डिते, हे सद्भावमण्डिते मैं दास क्षन्तव्य हूँ, मुझे क्षमा करो, तेरे उचित कर्तव्य करने में यथार्थ बात की अजानकारी से ही मैं विघ्र करने वाला बना । अब मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि आगे कभी भी मैं ऐसा निन्द्य कार्य नहीं करूंगा, अबकी बार हे सहृदय दयालु बहिन, मुझे क्षमा कर ||७||
एवमुक्तप्रकारेणाऽऽयाता
यस्यां निशि समुत्थाता
कृष्णचतुर्दशी प्रतिमायोगतो
वशी
॥ ८ ॥
इस प्रकार प्रतिदिन पुतला लाते हुए क्रमश: कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आ गई, जिसकी रात्रि में वह जितेन्द्रिय सुदर्शन सेठ प्रतिमायोग से स्मशान में ध्यान लगाकर अवस्थित रहता था ॥८॥
चतुर्दश्यष्टमी
चापि
प्रतिपक्षमिति समस्तीहार्हता
उक्तं
द्वयम् स्वयम्
पर्वोपवासाय
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प्रति मास प्रत्येक पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी ये दो पर्व अनादि से उपवास के लिए माने गये है, अतएव इन दोनों पर्वो में योग्य मनुष्य को स्वयं ही उपवास करना चाहिए ॥ ९ ॥
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स्यात् पर्वव्रतधारणा गृहिणां कर्मक्षयकारणात् ॥ स्थायी ॥ उपसंहृत्य च करणग्रामं कार्या स्वात्मविचारणा गुरुपदयोर्मदयोगं त्यक्त्वा प्राङ् निशि यस्योद्धरणा ॥२॥ यावच्छीजिननामोच्चारणात्
॥१॥
षोडशयाममितीदं अतिथिसत्कृतिं
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कृत्वाऽग्रदिने
भूरापादितपारणा
॥४॥
कर्मों का क्षय करने के निमित्त गृहस्थों को पर्व के दिन उपवास व्रत की गुरु चरणों में जाकर धारणा करना चाहिए। तदनन्तर अपनी इन्द्रियों को विषयों से संकुचित कर अपने आत्मस्वरूप का विचार करे। सर्व प्रकार से आरम्भ, अहंकार आदि पाप-योग को और चतुर्विध आहार को त्यागकर पर्व की पूर्व रात्रि में, पर्व के दिन और रात में और अगले दिन से मध्याह्नकाल तक सोलह पहर श्री जिनदेव के नामोच्चारण से बिताकर पहले अतिथि का आहार दान से सत्कार कर स्वयं पारणा को स्वीकार करे ॥१-४॥
भावार्थ - इस श्लोक में सोलह पहरवाले उत्कृष्ट प्रोषधोपवास की विधि बतलाई गई है । अष्टमी और चतुर्दशी के पूर्व सप्तमी और त्रयोदशी को एकाशन करने पश्चात् गुरु के समीप जाकर उपवास की धारणा करनी चाहिए। उसके पश्चात् उस दिन के मध्याह्नकाल से लगाकर नवमी और पूर्णिमा के मध्याह्नकाल सोलह पहर धर्मध्यान पूर्वक बितावे । पीछे अतिथि को आहार करा करके स्वयं पारणा करे।
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