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________________ - 95 -- ___द्वारपाल की बात सुनकर उस दासी ने फिर कहना प्रारम्भ किया- हे प्रंशसनीय द्वारपाल, मैं द्वार पर कबसे खड़ी. हुई हूं । बहुत दूर से लाये हुए इस पुतले के भार से मेरी आत्मा का बुरा हाल हो रहा हैं, मैं बोझ से मरी जा रही हूं, तब भी हे भले मानुष, तुझे क्या दया नहीं आ रही है? अरे द्वारपाल, इस पुतले के पीछे घूमते-घूमते मैंने सैंकड़ों कष्टमयी दशाएं भोगी है, सो अब दया कर और मुझे भीतर जाने दे। हे आदरणीय द्वारपाल, देख-आज महारानी का उपवास है, वे इस पुतले की पूजाआराधना किये बिना पारणा कैसे कर सकेंगी? और जब वे पारणा नहीं कर सकेंगी, तो फिर श्रीमती अभयमती रानी जी महान् संकट को प्राप्त होगी। इसका मुझे महा दुःख है, सो मुझे भीतर जाने दे। रानीजी व्रत-दाता के उपदेशानुसार इस पुतले की पूजा करने के लिए उधर प्रतीक्षा कर रही हैं और इधर मैं द्वार पर खड़ी हुई द्वार के स्वामी से आज्ञा मांग रही हूं। आप जाने नहीं देते। सो हे प्रशंसनीय गुणवाले द्वारपाल, तू ही बता, अब क्या किया जाय? हे सुन्दर द्वारपाल, अब अधिक विलम्ब मत कर, और हे महानुभाव, मुझे सुख से अन्त पुर में जाने के लिए आज्ञा दे ॥१-४॥ साहसेन सहसा प्रविशन्त्यास्तत्तनोर्नियमनानिपतन्त्याः । पुत्तलं स्फुटितभावमवापाऽतो ददाविति तु सा बहुशापान् ॥४॥ इस प्रकार बहुत प्रार्थना करने पर भी जब द्वारपाल ने उसे भीतर नहीं जाने दिया, तब वह दासी साहसपूर्वक भीतर प्रवेश करने लगी। द्वारपाल ने उसे रोका। रोकने पर भी जब वह नहीं रुकी, तो उसने दासी को धक्का देकर बाहिर की ओर ज्यों ही किया, त्यों ही दासी की पीठ पर से पुतला पृथ्वी पर गिर कर फूट गया। दासी फूट-फूटकर रोने लगी और द्वारपाल को नाना प्रकार की शामें देने लगी ।४॥ अरे राम रेऽहं हता निर्निमित्तं हता चापि राज्ञीह तावत्क्वचित्तम् । निधेयं मया किं विधेयं करोतूत सा साम्प्रतं चाखवे यद्वदौतुः ॥५॥ अरे राम रे, मैं तो बिना कारण मारी गई, और महारानी जी भी अब बिना पारणा के मरेंगी? अब मैं क्या करूं, मन में कैसे धीरज धरूं? अब तो महारानी जी मुझ पर ऐसे टूट कर गिरेंगी, जैसे भूखी बिल्ली चूहे पर टूट कर गिरती है ॥५॥ कुतः स्यात्पारणा तस्याः पुत्तलवतसंयुजः । शङ्क यन्ते किलास्माकं चित्ते तावदमू रुजः ॥६॥ __'पुत्तल व्रत को धारण करने वाली महारानी जी की पारणा पुतले के बिना कैसे होगी? यह बात मेरे चित्त में शूल की भांति चुभ रही है। मुझे जरा भी चैन नहीं है, हाय मैं क्या करूं ॥६॥ सोऽप्येवं वचनेन कम्पमुपयन् प्राहे ति हे पण्डिते; क्षन्तव्योऽस्मि तवोचितोचितविधौ सद्भावनामण्डिते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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