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________________ अथ सप्तमः सर्गः वस्त्रेणाऽऽच्छाद्य निर्माप्य पुत्तलं निशि पण्डिता I अन्तःपुरप्रवेशायोद्यताऽभूत्स्वार्थ सिद्धये ॥१॥ अब उस पण्डिता दासी ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मिट्टी का एक मनुष्याकार वाला पुतला बनवाया और उसे वस्त्र से अच्छी तरह ढक कर रात में उसको अपनी पीठ पर लादकर अन्तः पुर में प्रवेश करने के लिए उद्यत हुई ॥१॥ प्रवेशाय प्रार्थयन्तीं निषेधयन् प्रतीहारो जगाद स्वकर्तव्यपरायणः स निम्नोक्तं ॥२॥ अन्तःपुर में जाने की आज्ञा देने के लिए प्रार्थना करने वाली उस दासी से अपने कर्त्तव्य पालन में तत्पर द्वारपाल ने निषेध करते हुए इस प्रकार कहा ||२|| किं प्रजल्पसि भो भद्रे द्वाःस्थोऽहं प्रवेष्टुं नैव Jain Education International ताम् 1 यत्र तत्र तु । शक्नोति चटिका त्वन्तु चेटिका ॥३॥ हे भद्रे, तू क्या कह रही है? जहां पर मैं द्वारपाल हूं, वहां पर भीतर जाने के लिए चिड़िया भी समर्थ नहीं है, फिर तू तो चेटी (दासी) है ॥३॥ उपतिष्ठामि द्वारि पश्य, अहो किमु नास्ति दया तव शस्य ॥ स्था. ॥ पुत्तलकेन ममात्मनो हा हतिर्विरूपपरस्य 1 अनुभूता शतशो मयाऽहो दशा परिभ्रमणस्य ॥ अहो किमु. १ ॥ अभयमती सा श्रीमती हा सङ्कटमिता नमस्य 1 पारणमस्याः किं भवेत्तामाराधनामुदस्य ॥ अहो किमु ॥२॥ उपदेशविधानं यतोऽदः प्रतीक्षते गुणशस्य राज्ञीहाऽहं द्वारि खलु तामीहे गामधिपस्य ॥ अहो किमु. ॥३॥ भूरास्तामिह जातुचिदहो सुन्दल न विलम्बस्य आदेशं कुरुतान्महन् भो सुखप्रवेशनकस्य ॥ अहो किमु. ॥४॥ 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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