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________________ 15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी, 100 प्रतिक्रमण की सार्थकता डॉ. सुषमा सिंघवी - विदुषी लेखिका ने प्रस्तुत लेख में द्रव्य प्रतिक्रमण की अपेक्षा भाव प्रतिक्रमण का महत्त्व स्थापित किया है तथा प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्दों का विवेचन कर प्रतिक्रमण की सार्थकता सब जीवों के प्रति क्षमाभाव एवं मैत्रीभाव में प्रतिपादित की है। -सम्पादक छु- पिछला पाप से, नवा न बांधू कोय । तो जग में सब जीव से, खमत खामणा होय ।। यह भावना प्रतिक्रमण करने से पूर्ण होती है। व्रती तथा अव्रती दोनों के लिये प्रतिक्रमण का महत्त्व है। अव्रती व्रती बने तथा व्रती की आत्मशुद्धि हो इसके लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है। प्रतिक्रमण छः आवश्यकों में चतुर्थ स्थान पर परिगणित है। भूतकाल में किये सावध योग (अशुभ कार्य) की मन, वचन, काया से गर्दा भूतकाल का प्रतिक्रमण है; वर्तमान में संभावित सावध योग का मनवचन-काया से संवर-सामायिक-आराधन वर्तमान प्रतिक्रमण है तथा अनागत काल के सावध योग का मनवचन-काया से परित्याग रूप प्रत्याख्यान भावी प्रतिक्रमण है। सामायिक तथा प्रत्याख्यान की साधना हेतु प्रतिक्रमण आवश्यक है। काल भेद से अशुभ योग के निवृत्ति-कारक प्रतिक्रमण को तीन प्रकार का कह दिया जाता है। मिथ्यात्व एवं प्रमादवश स्वस्थान (स्वभाव) से परस्थान (विभाव) में गई आत्मा का पुनः स्वभाव में आना प्रतिक्रमण है। दूसरे शब्दों में क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में आई आत्मा का पुनः क्षायोपशमिक भाव में लौटना प्रतिक्रमण है। 'प्रति प्रति क्रमणं प्रतिक्रमण' इस निर्वचन से अशुभ योग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से शुभ योग में प्रवर्तन करना प्रतिक्रमण (भाव) है। जो अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभ योग में रहता है वह प्रतिक्रामक (कर्ता) है तथा जिस अशुभ योग का प्रतिक्रमण होता है वह प्रतिक्रान्तव्य (कर्म) कहलाता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है- अतिचार निवृत्ति क्रिया हेतु तत्पर होकर अतिचार विशुद्धि के लिए मनवचन-काया से अपने गुरु के समक्ष या अपनी आत्मा के समक्ष प्रत्यर्पण करना। प्रतिक्रमण करने का अर्थ है- दुष्कृत को मिथ्या करना, पाप का प्रायश्चित्त करना। इसलिये प्रतिक्रमण में 'मिच्छा मि दुक्कडं' (मिथ्या मे दुष्कृतं- मेरा दुष्कृत्य समाप्त हो) का कथन किया जाता है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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