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|15,17 नवम्बर 2006
जिनवाणी प्रवृत्ति करता है, फलस्वरूप प्रवृत्ति भी उसे निवृत्ति की तरफ अग्रसर करती है। प्रतिक्रमण का महत्त्व बताते हुए कहा गया है
जंबुदीचे जे हुँति पव्वया, ते चेव हुंति हेमरस । दिज्जति सत्तखिते न छुट्टए दिवसपच्छित्तं ।। जंबुद्दीवे जा हुज्ज बालुआ, ताउ हुति रयणाई।
दिज्जति सत्त खिते, न छुट्टर दिवसपच्छित्तं ।। अर्थात् जंबूद्वीप में जो मेरु आदि पर्वत हैं, वे सब सोने के बन जायें और जंबूद्वीप में जो बालू है, वह सब रत्नमय बन जाये, वह सोना और रत्न यदि सात क्षेत्र में दान दे देवें, तो भी जीव इतना शुद्ध नहीं बनता, जितना भावपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त वहन कर शुद्ध बनता है।
आलोयणपरिणओ सम्मं संपट्ठिओ गुरुसगासे ।
जइ अंतरा कालं करेइ आराहओ तहवि ।। __ अर्थात् शुद्ध आलोचना करने के लिए गुरु के पास प्रस्थान किया हो और प्रायश्चित्त लेने के पहले ही वह व्यक्ति बीच में मृत्यु को प्राप्त हो जाए, तो भी वह आराधक बनता है। अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक बनता है।
लज्जा गारवेण बहुस्सुयमयेण वावि दुच्चरियं ।
जे न कहंति गुरुणं, न हु ते आराहगा हुंति ।। अर्थात् लज्जा से अथवा मैं इतना धर्मी हूँ, अथवा मैं बड़ा हूँ, पाप कहने से मेरी लघुता होगी, इस प्रकार गारव से तथा पांडित्य का नाश न हो जाए, इस भय से जो जीव गुरु के पास शुद्ध आलोचना नहीं करते, वे वास्तव में आराधक नहीं बनते।
-विभागाध्यक्ष, दर्शनशास्त्र-विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
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