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जिनवाणी
15,17 नवम्बर 2006 प्रभात तथा संध्याकाल में मानव के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक क्रिया है।
___ वस्तुतः अतिक्रमण का ही प्रतिक्रमण किया जाता है। आत्मा ने भ्रान्ति के क्षणों में स्वभाव (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) से हटकर विभाव (राग-द्वेषादि) में रमण करके जो अतिक्रमण किया है, उससे पुनः लौटना अर्थात् स्वभाव में रमण करना ही प्रतिक्रमण कहलाता है।
___ जाग्रत तन और जाग्रत मन से प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति संयम की साधना द्वारा आस्रव का निरोध करके संवर की निष्पत्ति करता है अर्थात् अतीत में लगे दोषों का पश्चात्ताप करता है। वह संवर के माध्यम से वर्तमान काल में दोषों को नहीं लगने देता और प्रायश्चित्त तप की साधना द्वारा निर्जरा की निष्पत्ति करके भविष्यकाल में लगने वाले दोषों को रोकने के लिए प्रत्याख्यान आदि द्वारा पूर्व संचित कर्मों का रेचन भी कर लेता है।
जैन आगम में प्रतिक्रमण को आवश्यक कहा गया है। आवश्यक का अर्थ है “अवश्यं करणीयत्वाआवश्यकम्' जो अवश्य किया जाए वह आवश्यक कहलाता है। यह साधु तथा श्रावक दोनों की आवश्यक क्रिया है। साधु सर्वविरति कहलाता है और श्रावक देशविरति। इसलिए साधु के लिए तो प्रतिदिन प्रातः सायं दोनों समय प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है, परन्तु श्रावक को भी प्रतिदिन उभयकाल प्रतिक्रमण करना चाहिए। इस संबंध में प्रश्न यह उठता है कि जिसने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये हों उसे तो प्रतिक्रमण करना योग्य है, परन्तु जिसने व्रत ग्रहण नहीं किए हों उससे अतिचार असंभव है, इसलिए अव्रती को प्रतिक्रमण करने की क्या आवश्यकता है? प्राज्ञ पुरुषों ने इसका सुन्दर समाधान करते हुए कहा है कि व्रती एवं अव्रती दोनों को प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि मात्र अतिचारों की शुद्धि के लिए ही प्रतिक्रमण हो ऐसा आवश्यक नहीं है। वंदित्तु सूत्र की गाथा ४८ “पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं' में जिन कारणों से (जिनेश्वर के निषिद्ध कार्य करने से, उपदिष्ट या करणीय कार्य न करने से, जिनवचन में अश्रद्धा करने से तथा असत्यप्ररूपण से अर्थात् जिनेश्वरों के कथन, उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के विरुद्ध विचार प्रतिपादन करने से) प्रतिक्रमण किया जाता है उनमें मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति तथा सर्वविरित सब आ जाते हैं। अतः चाहे अविरति हो, चाहे विरति हो सबके लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है।
__ वस्तुतः प्रतिक्रमण ऐसी औषधि के समान है, जिसका प्रतिदिन सेवन करने से विद्यमान रोग (कषाय) शांत हो जाते हैं, रोग नहीं होने पर उस औषधि के सेवन से भविष्य में रोग नहीं होते अर्थात् प्रतिक्रमण के द्वारा दोषों का निवारण हो जाता है और दोष नहीं लगे हों तो प्रतिक्रमण भाव और चारित्र की विशेष शुद्धि करता है।
एक विद्वान् ने नर से नारायण बनने की क्रिया के रूप में महत्त्व देते हुए प्रतिक्रमण को ही ध्यान का पहला चरण बताया है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रतिक्रमण से ही जीवन में सच्ची सामायिक, सच्ची समता और सच्ची समाधि आती है। समता जीवन का पर्याय बनता है, व्यक्ति स्वभाव के आलोक में
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