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________________ 101 | 15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी मिथ्या दुष्कृत कथन दो प्रकार का होता है- १. द्रव्य से २. भाव से। द्रव्य मिथ्या दुष्कृत को कुम्भकार के दृष्टान्त से समझा जा सकता है एक कुम्हार के घर में साधु ठहरे थे। उनमें से एक बालवय क्षुल्लक उस कुम्हार के घड़ों में अंगुली के बराबर धनुष से कंकर फेंककर छेद करता है। कुम्भकार ने नींद से जागने पर देख लिया और कहा- मेरे बर्तनों में छेद क्यों कर रहे हो? क्षुल्लक कहता है- 'मिच्छामि दुक्कडं' (मिथ्या मे दुष्कृतं- मेरी गलती की मैं निन्दा करता हूँ) और दुबारा घड़ों में छेद करता है और फिर 'मिच्छामि दुक्कडं' मेरा दुष्कृत मिथ्या हो, ऐसा कहता है। इस पर कुम्भकार भी उस क्षुल्लक के कान मरोड़ता है। क्षुल्लक कहता है- मुझे दर्द हो रहा है। कुम्भकार कहता है- 'मिच्छामि दुक्कडं' मेरी गलती की मैं निन्दा करता हूँ। इस प्रकार बार-बार कान मरोड़कर 'मिच्छामि दुक्कडं' करता है। व्यंग्यपूर्वक क्षुल्लक कहता है- यह अच्छा तरीका है पाप की निन्दा करने का। कुम्हार कहता है- आपने भी ऐसा ही 'मिच्छामि दुक्कडं' किया और दुबारा घड़ों को काणा किया। जिस दुष्कृत की निन्दा की, उसी पाप का पुनः सेवन किया। यह प्रत्यक्षमृषावादी (झूठा व्यवहार करने वाला) और मायानिकृति (कपट आचरण) का प्रसंग है। यह द्रव्य प्रतिक्रमण है। इसका विशेष लाभ नहीं है। भाव 'मिच्छा मि दुक्कडं' को मृगावती के उदाहरण से समझ सकते हैं। भगवान् महावीर स्वामी कौशाम्बी नगरी में पधारे। वहाँ चन्द्र और सूर्य भगवान् महावीर को वन्दन करने विमान से उतरे। वहाँ आर्य उदयन की माता मृगावती 'अभी दिन है' यह जानकर देर तक रुक गई। शेष साध्वियाँ तीर्थंकर भगवान् को वंदन कर लौट गयीं। चन्द्र-सूर्य भी तीर्थंकर को वन्दन कर लौट गये। शीघ्र ही घनी रात हो गई, मृगावती घबराई और आर्या चन्दना के पास गयीं। इस बीच पहले लौटी साध्वियाँ मृगावती की आलोचना करने लगीं। आर्या चन्दना ने पूछा- देर तक कैसे रुकी? तुम उच्च कुल में उत्पन्न हुई हो, अकेली देर तक ठहरना ठीक नहीं। मृगावती सद्भाव से 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहा और आर्या चन्दना के चरणों में गिर पड़ी, आर्या चन्दना उस समय शय्या पर थी तो उन्हें नींद आ गई और इधर मृगावती को अत्यन्त तीव्र संवेग भाव से पश्चात्ताप करते हुए केवलज्ञान हो गया। मृगावती ने जाना कि उधर से साँप आ रहा है और आर्या चन्दना का एक हाथ शय्या पर से नीचे लटक रहा है, अतः साँप काट न जाय इस आशय से बचाने के लिए हाथ शय्या पर रखने लगी। आर्या चन्दना की नींद टूटी, आर्या चन्दना जागकर बोली- तुम अभी तक यहीं हो, अरे! 'मिच्छा मि दुक्कडं' (मुझसे गलती हुई वह निन्दनीय है) नींद के प्रमादवश मैंने चरणों में गिरी तुमको उठाया ही नहीं। मृगावती बोली- यह सर्प आपको डस न ले, इसलिये आपका हाथ शय्या पर रखा। चन्दना ने पूछा- साँप कहाँ है? मृगावती दिखाती है, आर्या चन्दना साँप को नहीं देख पाती तो कहती हैं- आर्ये! क्या तुम्हें अतिशय ज्ञान हुआ है, जिससे तुम सर्प देख पा रही हो? मृगावती बोली- जी हाँ। आर्या ने पूछा- यह ज्ञान क्या छद्मस्थ अवस्था में होने वाला है या केवल ज्ञान से संबंधित है। मृगावती बोली- केवलज्ञान से संबंधित। इस पर आर्या चन्दना मृगावती के चरणों में गिरकर कहती है- 'मिच्छामि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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