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________________ | 15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी प्रतिक्रमण की साधना ज्ञान की साधना है, दर्शन की साधना है, चारित्र की साधना है, तप की साधना है एवं वीर्याचार की साधना है। प्रतिक्रमण से मन, वचन व काया में स्थिरता आती है। आठ प्रवचन माता की गोद में साधक का मन स्थिर रहता है। बहुत से व्यक्ति कहते हैं कि साधु-संतों को दोनों समय प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना जरूरी है। साधुसंतों को यदि दोनों समय प्रतिक्रमण करना जरूरी है तो क्या श्रावक के लिये प्रतिक्रमण करना आवश्यक नहीं है क्या? जरा सोचें पाप अधिक कौन करता है? दोष ज्यादा किसको लगते हैं? सावधानी ज्यादा किसको रखनी चाहिये? अतिक्रमण श्रावक-श्राविका के होता है तो प्रतिक्रमण भी उन्हें करना जरूरी है। इसलिये प्रतिक्रमण कभी किसी का छूटना नहीं चाहिये। चाहे खाना खाओ या नहीं, चाहे सोओ या नहीं, पर प्रतिक्रमण तो दोनों समय अवश्य करना है, फिर देखें जीवन का रूपान्तरण हो जायेगा व जीवनचर्या में एक व्यवस्था बनी रहेगी। भीतर में लगेगा कि शक्ति का संचार हो रहा है, तब अनुभव होगा कि प्रतिक्रमण रूपी औषधि अपना काम कर रही है। हम फिर कहीं भी भटकेंगे नहीं एवं किसी तरह अपने घर में लौट कर आ जायेंगे। प्रतिक्रमण के पहले की जिन्दगी बिल्कुल अलग होती है तथा प्रतिक्रमण के बाद की जिन्दगी बिल्कुल अलग ही होती है। प्रतिक्रमण करने वाला स्वयं के जीवन को एक नया जन्म देता है। हम भी अपने को नया जन्म देने में सक्षम बनें। जिसे आत्मा के सुख की अनुभूति हो जाती है उसे बाहर के सुख की इच्छाकामना रहेगी ही नहीं। उसे फिर बाहर भटकने की जरूरत ही नहीं। जब मेरी आत्मा में भी वीतरागता का सुख मौजूद है फिर मुझे संसार के क्षणिक सुख अच्छे कैसे लग सकते हैं? भगवान् की आज्ञा के विपरीत जो-जो भाव किये, जो मुझे नहीं करने चाहिये उन सब भावों को मैं वोसिराता हूँ। ये जो भी दोष थे वे सब कर्मो के उदय से थे। कर्म उदय से जो-जो भाव मैंने किये उन सब भावों को मैं वोसिराता हूँ। आत्मगुणों के अलावा अन्य जितने भी भाव मैंने किये वे सब वैभाविक भाव थे, वे सब मेरे नहीं थे। मैं तो ज्ञान-दर्शनमय हूँ। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निष्कलंक हूँ, निर्मल हूँ। मेरी आत्मा में अनन्त शक्ति है। मैं अपने ही आत्मगुणों में स्थित हो सकता हूँ। मैं कषाय व राग-द्वेष भावों को क्षय करने की क्षमता रखता हूँ। मैं इन सब विभाव भावों का क्षय कर सकता हूँ। मेरा यह स्वरूप है एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजूओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।। हम सब अतिक्रमण से हटकर प्रतिक्रमण में आ जायें तो यहाँ भी आनन्द और आगे भी आनन्द। -चोरडिया भवन, जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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