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________________ जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| के भाव यदि मन में लायेंगे तो इससे हमारे कर्मों की निर्जरा होगी। गर्मी बहुत है और अचानक लाइट चली जाय तो मन में कैसे भाव आते हैं और वापस जब थोड़ी देर के बाद लाइट आती है तब चित्त कैसा प्रसन्न होता है। इस प्रकार दिन भर में कितने राग-द्वेष के भाव मेरे मन में आये। कितनी बार मन में चंचलता के भाव आये। कभी किसी ने प्रशंसा कर दी तो मन में कैसे भाव आते हैं और किसी ने निंदा कर दी, हमारे दोष बताये तो कैसे भाव मन में आते हैं कि इनको तो हमारी गलतियाँ ही दिखती हैं। इस तरह हर बार घटना घटने पर अपने अन्दर के विचारों का निरीक्षण करें। दिनभर में पता नहीं कितने-कितने विकल्पों में हम उलझ जाते हैं। अपने अन्दर के इन सब विचारों को हमें बड़ी गहरी नजर से देखना है। पहले उन दोषों को देखेंगे तभी तो उनको दूर कर सकेंगे। इसलिये प्रतिक्रमण करना है तो अपने किये गये दोषों को देखें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें। फिर हमको लगेगा कि मेरा पूरा दिन, पूरा माह, पूरा साल ही क्या मेरी तो पूरी जिन्दगी ही, व्यर्थ के कार्यो को करने में चली गई- ऐसा देखकर कभी हमें रोना भी आ सकता है और यह रोना पूरी जिन्दगी को बदल सकता है। हम ऐसा प्रतिदिन देखने का अभ्यास करें। दिन भर में क्या, हर क्षण में हमारे विचार बदलते रहते हैं। जितने भी राग-द्वेष के परिणाम हैं, हिंसा के विचार हैं, अशुभ परिणाम हैं, वे कर्म-बंधन के कारण हैं। इसी प्रकार जब हम खाना खा रहे हैं, उस समय कैसे परिणाम आये, कब खाया, कैसा खाया, कितना खाया, लूंस-ठूस कर तो नहीं खाया, जो खाने लायक नहीं था, उसे तो नहीं खाया इत्यादि चिन्तन करें एवं भूल के लिए तस्स मिच्छामि दुक्कडं' दें। कपड़ा फट जाता है और हम ध्यान नहीं देते तो वह ज्यादा फट जाता है, इसी प्रकार जीवन में दोष लगते हैं और हम उनकी तरफ ध्यान नहीं देते उन्हें सुधारते नहीं तो ज्यादा बढ़ते जाते हैं। बहुत से भाई-बहिन कहते हैं कि यह रोज-रोज क्या प्रतिक्रमण करना? घर का कचरा रोज निकालते हैं या कचरे में ही रहते हैं? कचरा रोज निकालते हैं और फिर से आ जाता है। हम बाहर के घर को तो बहुत साफ रखते हैं, जो ईंट, चूना, पत्थर से बना हुआ है, पर आत्मा तो रहने का मन्दिर है, जो हमारा भगवान् है उस आत्मदेव को कैसे गंदा रख सकते हैं? इसलिये रोज प्रतिक्रमण कर हम अपनी आत्मा को पवित्र व निर्मल रखें। कुछ दवाइयाँ ऐसी होती हैं जो बीमारी को दूर करती हैं और कुछ बीमारी नहीं है तो भी बीमारी को आने ही नहीं देती, प्रतिक्रमण भी ऐसी ही औषधि है जो दोष लग जाता है तो उसे दूर कर देती है और न हो तो उसे लगने नहीं देती है। प्रतिक्रमण हमारा अपना कार्य है, इसे हम स्वयं अपने भावों के साथ करें और फिर परिणाम देखें। दूसरा हमें प्रतिक्रमण के पाठों को सुना सकता है, परन्तु हमारे दोषों को, हमारी गलतियों को तो हमें ही सुधारना है। हमारे अपने भावों को तो हम ही देख सकते हैं। जैसे एक छोटा सा छिद्र पूरी नाव को डूबा देता है, वैसे ही व्रतों में लगे ये छिद्र पूरे जीवन को बर्बाद कर देते हैं। प्रतिक्रमण के द्वारा हम उन दोष रूपी छिद्रों को बंद करते हैं। प्रतिक्रमण के माध्यम से ही हमारी जीवन रूपी चादर में लगे सब दाग-धब्बे दूर हो जाते हैं। सारे आस्रव द्वार बंद हो जाते हैं, नये कर्मों का बंधन फिर नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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