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________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी अपनी शुद्धि कर लेते हैं। जाने-अनजाने में हमसे पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु आदि स्थावर जीवों की विराधना हो जाती है। शरीर की साता के लिये जल के जीवों की विराधना हम कर लेते हैं। शरीर को टिकाये रखने के लिये अग्नि व वनस्पतिकाय की विराधना हम कर लेते हैं। खाना खाते समय राग-द्वेष कर लेते हैं। खाते समय व परोसते समय अत्यधिक आसक्ति रखकर या सराह-सराह कर खाते हैं, नहीं खाने लायक खा लेते हैं। शाम को प्रतिक्रमण करते समय याद आये या न भी आये, इसलिये आप उसी समय प्रतिक्रमण की आदत डाल दें। मुझे अपनी आत्मा में लौटना है और जो दोष लग गया है उसका प्रतिक्रमण कर उन दोषों से मुक्त होना है। इस प्रकार भावों की विशुद्धि से कर्मो की अधिक निर्जरा होती है। रात्रि में सोने से पहले हमें अवश्य प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। ऐसा नहीं है कि हमसे गलतियाँ होती नहीं। पहले भी हमसे गलतियाँ हुईं, आज भी हो रही हैं और आगे भी हो सकती हैं। इसलिये हम अपनी गलतियों को स्वीकार करें व उन्हें दूर करने का पुरुषार्थ करें। हमें गलतियों से जुड़े हुए नहीं रहना है। हर हालत में जागृत रहकर उन गलतियों को दूर करने का प्रयत्न कर आत्मा की शुद्धि करनी है। एक नारकी जीव भी अपनी भूल को स्वीकार कर मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी बन जाता है। इसका मतलब उसने जैसा है, उसको उसी रूप में स्वीकार कर मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण कर लिया। इन सब दुःखों का कारण मैं स्वयं ही हूँ, मुझे कोई दुःखी कर नहीं सकता। इस प्रकार सब दोष अपने पर लेकर उन दुःखों को समभाव से सहन करता है। मुझे कोई दूसरा सुखी भी नहीं कर सकता और न ही कोई दुःखी कर सकता है। इस प्रकार का चिन्तन सम्यग्दर्शन उत्पन्न करा देता है। हमारा ही अज्ञान व मोह हमें दुःखी करता है। शुभकर्म के उदय में भी हमें राग नहीं करना है। जैसे किसी का सहयोग किया, किसी की भलाई की या किसी को अपने समय का भोग दिया। उसमें भी कामना मत करो कि मैंने किया, इसलिये मुझे भी मिलना चाहिये। ज्ञानी कहते हैं कि आप शुभ को भी जानो व अशुभ को भी जानो। जानकर शुभ पर राग व अशुभ पर द्वेष मत करो। आपने किसी का सहयोग किया और सहयोग करके भी राग-द्वेष कर लिया तो बंधन हो जायेगा। हमने उदय भाव से जो जीवन जीया, शरीर से जितने भी कार्य किये, उन सबका “तस्स मिच्छामि दुक्कड" देना है। मुझे बाहर के सब स्थानों से हटकर अपनी चेतना में आना है। मुझे सब दोषों से मुक्त होना है, ऐसे भाव मन में आने चाहिये। हम दिनभर की चर्या को देखना शुरू करें, पूरी की पूरी रील सामने आ जानी चाहिये। जब हम देखना शुरू करेंगे तो खुद को लगेगा कि मुझसे बहुत से अपराध हो गये हैं। पृथ्वी, पानी, वायु, अग्निकाय आदि जीवों की जाने-अनजाने में अनेक प्रकार की हिंसा मन से, वचन से व शरीर के माध्यम से मैंने की, कराई व करके राग-द्वेष पैदा किये। अखबार पढ़कर व टी.वी. देखकर मन में कितने रागद्वेष किये। इस प्रकार जितनी गहरी नजर होगी उतना ही लगेगा कि हमने अपना अमूल्य समय कितना व्यर्थ में बर्बाद कर दिया। मुँह धोते समय कितना पानी व्यर्थ गिराते हैं। नहाते समय भी आधी बाल्टी पानी से काम चल सकता था, पर मैंने कितना पानी व्यर्थ गँवा दिया। इस प्रकार पानी के जीवों की यतना व उनसे विरत होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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